Book Title: Prachin Malva ke Jain Vidwan aur unki Rachnaye Author(s): Tejsinh Gaud Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 1
________________ बलवा भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। मा साहित्य के सम्बन्ध में भी यह पिछड़ा हुआ नहीं रहा है। कालिदास जैसे कवि इस भूखण्ड की ही देन है। प्राचीन मालवा में जैन - विद्वानों की भी कमी नहीं रही है। प्रस्तुत निबंध में मालवा के सम्बन्धित जैन विद्वानों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी कृतियों का भी परिचय देने का प्रयास किया जा रहा है। इन विद्वानों के सम्बन्ध में सामग्री यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। साथ ही आज भी जैनधर्म से सम्बन्धित कई ग्रन्थ ऐसे हो सकते हैं और होंगे भी जो प्रकाश में नहीं आए हैं। फिर भी उपलब्ध जानकारी के अनुसार कुछ जैन - विद्वान और उनकी रचनायें निम्नानुसार है: १. आचार्य भद्रबाहु :- आचार्य भद्रबाहु का परिचय देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । कारण कि इन्हें प्रायः अधिकांश व्यक्ति जानते हैं। ये भगवान महावीर के पश्चात् छठे थेर माने जाते हैं। इनके ग्रंथ 'दसाउ' और 'दस निज्जुति' के अतिरिक्त 'कल्पसूत्र' का जैन धार्मिक-साहित्य में विशेष महत्व है। प्राचीन मालवा के जैन विद्वान और उनकी रचनाएँ २. क्षपणक :- ये सम्राट् निक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। इनके रचे हुए न्यायावतार, दर्शनशुद्धि, सम्मतितर्कसूत्र और प्रमेयरत्न कोवा नामक चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। इनमें न्यायावतार ग्रंथ अपूर्व है। यह अत्यंत लघु ग्रंथ है, किंतु इसे देख कर सागर में मागर भरने की कहावत याद आ जाती है । ३२ श्लोकों के इस काव्य में क्षपणक ने सारा जैन न्याय शास्त्र भर दिया है। न्यायावतार पर चन्द्रप्रभसूरि ने न्यायावतारनिवृत्ति नामक विशेष टीका लिखी है। २ (३) आर्य रक्षितसूरि : आपका जन्म मन्दसौर में हुआ था । पिता का नाम सोमदेव तथा माता का नाम रुद्रसोमा था। लघुभ्राता का नाम फल्गुरक्षित था जो स्वयं भी आर्यरक्षितसूरि के कहने से जैन साधु हो गया था। इनके पिता सोमदेव स्वयं एक अच्छे विद्वान थे। आर्यरक्षित की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता के संरक्षण में हुई। फिर आगे अध्ययनार्थ ये पाटलीपुत्र चले गये। पाटलीपुत्र से अध्ययन amer Jain Education International डॉ. तेजसिंह गौड़ उज्जैन (म. प्र. )... समाप्त कर जब इनका दशपुर आगमन हुआ तो स्वागत के समय माता रुद्रसोमा ने कहा - "आर्यरक्षित तेरे विद्याध्ययन से मुझे तब संतोष एवं प्रसन्नता होती जब तू जैन दर्शन और उसके साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेता । "माता की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका गये जहाँ आचार्य श्री तोसलीपुत्र विराजमान थे। उनसे दीक्षा ग्रहण कर जैन- दर्शन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया। फिर उज्जैन में अपने गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्तसूरि एवं दतनंतर आर्य वज्रस्वामी के समीप पहुंचकर उनके अन्तेवासी बनकर विद्याध्ययन किया । आर्य वज्रस्वामी की मृत्यु के उपरांत आर्यरक्षितसूरि तेरह वर्ष तक युगप्रधान रहे। आपने आगमों को चार भागों में निम्नानुसार विभक्त किया : १. करणचरणानुयोग, २. गणितानुयोग, ३. धर्मकथानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग । इसके साथ ही आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्वपूर्ण आगम मान जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम दर्शनिक दृष्टि का परिचायक है। आर्यरक्षित सूरि का स्वर्गवास दशपुर में वीर संवत् ५८३ में हुआ। * (४) सिद्धसेन दिवाकर : पं. सुखलाल जी ने श्री सिद्धसेन दिवाकर के विषय में इस प्रकार लिखा है - जहाँ तक मैं जान पाया हूँ जैनपरम्परा में तर्क का और तर्कप्रधान संस्कृतवाडूमय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर ।" उज्जैन और विक्रम के साथ इनका पर्याप्त सम्बन्ध रहा है। रचनायें (१) 'सम्मति प्रकरण प्राकृत में है और जैनदृष्टि और मंतव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट करने तथा स्थापित करने में जैन- वाङ्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है, जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर - दिगम्बर - विद्वानों ने लिया है। सिद्धसेन दिवाकर ही जैन-परम्परा का आद्य संस्कृत स्तुतिकार है। ११ GGG For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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