Book Title: Prachin Malva ke Jain Vidwan aur unki Rachnaye
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलवा भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। मा साहित्य के सम्बन्ध में भी यह पिछड़ा हुआ नहीं रहा है। कालिदास जैसे कवि इस भूखण्ड की ही देन है। प्राचीन मालवा में जैन - विद्वानों की भी कमी नहीं रही है। प्रस्तुत निबंध में मालवा के सम्बन्धित जैन विद्वानों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनकी कृतियों का भी परिचय देने का प्रयास किया जा रहा है। इन विद्वानों के सम्बन्ध में सामग्री यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। साथ ही आज भी जैनधर्म से सम्बन्धित कई ग्रन्थ ऐसे हो सकते हैं और होंगे भी जो प्रकाश में नहीं आए हैं। फिर भी उपलब्ध जानकारी के अनुसार कुछ जैन - विद्वान और उनकी रचनायें निम्नानुसार है: १. आचार्य भद्रबाहु :- आचार्य भद्रबाहु का परिचय देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । कारण कि इन्हें प्रायः अधिकांश व्यक्ति जानते हैं। ये भगवान महावीर के पश्चात् छठे थेर माने जाते हैं। इनके ग्रंथ 'दसाउ' और 'दस निज्जुति' के अतिरिक्त 'कल्पसूत्र' का जैन धार्मिक-साहित्य में विशेष महत्व है। प्राचीन मालवा के जैन विद्वान और उनकी रचनाएँ २. क्षपणक :- ये सम्राट् निक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। इनके रचे हुए न्यायावतार, दर्शनशुद्धि, सम्मतितर्कसूत्र और प्रमेयरत्न कोवा नामक चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। इनमें न्यायावतार ग्रंथ अपूर्व है। यह अत्यंत लघु ग्रंथ है, किंतु इसे देख कर सागर में मागर भरने की कहावत याद आ जाती है । ३२ श्लोकों के इस काव्य में क्षपणक ने सारा जैन न्याय शास्त्र भर दिया है। न्यायावतार पर चन्द्रप्रभसूरि ने न्यायावतारनिवृत्ति नामक विशेष टीका लिखी है। २ (३) आर्य रक्षितसूरि : आपका जन्म मन्दसौर में हुआ था । पिता का नाम सोमदेव तथा माता का नाम रुद्रसोमा था। लघुभ्राता का नाम फल्गुरक्षित था जो स्वयं भी आर्यरक्षितसूरि के कहने से जैन साधु हो गया था। इनके पिता सोमदेव स्वयं एक अच्छे विद्वान थे। आर्यरक्षित की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता के संरक्षण में हुई। फिर आगे अध्ययनार्थ ये पाटलीपुत्र चले गये। पाटलीपुत्र से अध्ययन amer डॉ. तेजसिंह गौड़ उज्जैन (म. प्र. )... समाप्त कर जब इनका दशपुर आगमन हुआ तो स्वागत के समय माता रुद्रसोमा ने कहा - "आर्यरक्षित तेरे विद्याध्ययन से मुझे तब संतोष एवं प्रसन्नता होती जब तू जैन दर्शन और उसके साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेता । "माता की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका गये जहाँ आचार्य श्री तोसलीपुत्र विराजमान थे। उनसे दीक्षा ग्रहण कर जैन- दर्शन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया। फिर उज्जैन में अपने गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्तसूरि एवं दतनंतर आर्य वज्रस्वामी के समीप पहुंचकर उनके अन्तेवासी बनकर विद्याध्ययन किया । आर्य वज्रस्वामी की मृत्यु के उपरांत आर्यरक्षितसूरि तेरह वर्ष तक युगप्रधान रहे। आपने आगमों को चार भागों में निम्नानुसार विभक्त किया : १. करणचरणानुयोग, २. गणितानुयोग, ३. धर्मकथानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग । इसके साथ ही आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्वपूर्ण आगम मान जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम दर्शनिक दृष्टि का परिचायक है। आर्यरक्षित सूरि का स्वर्गवास दशपुर में वीर संवत् ५८३ में हुआ। * (४) सिद्धसेन दिवाकर : पं. सुखलाल जी ने श्री सिद्धसेन दिवाकर के विषय में इस प्रकार लिखा है - जहाँ तक मैं जान पाया हूँ जैनपरम्परा में तर्क का और तर्कप्रधान संस्कृतवाडूमय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर ।" उज्जैन और विक्रम के साथ इनका पर्याप्त सम्बन्ध रहा है। रचनायें (१) 'सम्मति प्रकरण प्राकृत में है और जैनदृष्टि और मंतव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट करने तथा स्थापित करने में जैन- वाङ्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है, जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर - दिगम्बर - विद्वानों ने लिया है। सिद्धसेन दिवाकर ही जैन-परम्परा का आद्य संस्कृत स्तुतिकार है। ११ GGG Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास(२) 'कल्याणमंदिरस्तोत्र' ४४ श्लोकों में है। यह भगवान् अपरनाम विशाखाचार्य, संघ सहित दक्षिण के पुन्नाट देश को गये पार्श्वनाथ का स्तोत्र है।इसकी कविता में प्रसाद गुण कम और थे। कथाओं में कुछ नाम व शब्द जैसे मेदज्ज (मेतार्य), विज्जदाड़ कृत्रिमता एवं श्लेष की अधिक भरमार है। परन्तु प्रतिभा की (विद्युदंष्ट्र) प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए हैं जिससे अनुमान होता है कमी नहीं है। कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत-कृति के आधार पर लिख (३) वर्धमान शत्रिंशिधास्तोत्र ३२ श्लोकों में भगवान् रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोश को आराधनोधृत कहा है, महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। प्रसादगुण जिससे अनुमानतः भगवताआराधना का अनुमान होता है।११ अधिक है। ७. मानतुंग : इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी विचार धाराएँ हैं। इनका समय सातवीं या आठवीं शताब्दी के लगभग इन दोनों स्तोत्रोंमें सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला उच्च माना जाता है। श्रेणी की पाई जाती है। - रचनायें - इन्होंने मयूर और बाण के समान स्तोत्र(४) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका बड़े बड़े जैनाचार्यों ने काव्य का प्रणयन किया। इनके भक्ताभरस्तोत्र का श्वेताम्बर की है। इसके रचनाकार को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमा स्वामि' और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायवाले समान रूप से आदर करते और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमास्वाति' बतलाते हैं। इस ग्रंथ हैं। कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक की टीका सिद्धसेन दिवाकर ने बड़ी विद्वत्ता के साथ लिखी है। अन्तिम चरण को लेकर समस्यापूात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे ५. जिनसेन - ये पन्नाट सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा में हुए। जाते रहे। इस स्तोत्र की कई समस्यापूर्तियाँ उपलब्ध है१२ ये आदिपुराण के कर्ता श्रावक धर्म के अनुयायी एवं पंचस्तूपान्वय (८) आचार्य देवसेन :- मार्गशीर्ष शुक्ला १० वि. सं. ९९० के जिनसेन से भिन्न हैं। ये कीर्तिषेण के शिष्य थे। को धारा में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में इन्होंने अपना जिनसेन का 'हरिवंश' इतिहासप्रधान चरितकाव्य श्रेणी ग्रन्थं 'दर्शनसार' समाप्त किया।१३ इन्होंने 'आराधनासार' और का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर वर्तमान बदनावर . 'तत्त्वसार' नामक ग्रन्थ भी लिखे हैं। आलापपद्धति' और 'नयचक्र' जिला धार में की गई थी। दिगम्बरीय सम्प्रदाय के कथासंग्रहों में आदि रचनायें आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह इसका स्थान तीसरा है। रचनाओं से ज्ञात नहीं होता। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप ६. हरिषेण : पन्नाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य समझने के लिए देवसेन की रचनायें बहत उपयोगी हैं।१४ हरिषेण हुए। इनकी गुरुपरम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, (९) आचार्य महासेन :- ये लाड़बागड संघ के पूर्णचन्द्र थे। हरिषेण इस प्रकार बनती है। अपने कथाकोश की रचना इन्होंने आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गणाकरसेनसरि के शिष्य थे। वर्धमानपुर या बढवाण - बदनावर में विनायकपाल राजा के इन्होंने 'प्रद्यम्नचरित' की रचना ११ वीं शताब्दी के मध्य भाग में शासनकाल में की थी। विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा की ये मुंज के दरबार में थे तथा मुंज द्वारा पूजित थे। न तो इनकी था। जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका एक ९८८ वि. सं. कृति में ही रचनाकाल दिया हुआ है और न ही अन्य रचनाओं का दानपत्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.क्र. की जानकारी मिलती है। ९८९, शक संवत् ८५३ में कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक (१०) अमितगति :- आचार्य अमितगति द्वितीय माथुरसंघ परिमाण का वृहद् ग्रन्थ है। यह संस्कृतपद्यों में रचा गया है के आचार्य थे जो माधवनसेनसूरि के शिष्य और नेमिषेण के और उपलब्ध समस्त कथाकोशों में प्राचीनतम सिद्ध होता है। प्रशिष्य थे। अमितगति वाक्यतिराज मुंज की सभा के रत्न थे। इसमें १५७ कथायें हैं। जिनमें चाणक्य, शकराज, भद्रबाहु । ये बहुश्रुत विद्वान थे। इनकी रचनाएँ विविध विषयों पर उपलब्ध वररुचि, स्वामी कार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी हैं। इनकी रचनाओं में एक पंचसंग्रह वि.सं.१०७३ में मसूतिकापूर हैं। इस कथाकोश के अनुसार भद्रबाह उज्जयिनी के समीप वर्तमान मसूद बिलोदा, जो धार के समीप है, बनाया गया था। भाद्रपद में ही रह रहे थे और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त, anwaroornardrowarororandroinrotonorariwarotonirodrira-[१२]6brGrotonirowaridniromirandirirandaridridroidrorani Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासइन सब उल्लेखों से सुनिश्चित है कि अमितगति धारा नगरी और देवसेन-अमितगति(प्रथम) नेमिषेण - माधवसेन - उसके आसपास के स्थानों में रहे थे। उन्होंने प्रायः अपनी सभी अमितगति(द्वितीय) और शिष्यपरम्परा- शांतिषेण-अमरसेन - रचनायें धारा में या उसके समीपवर्ती नगरों में लिखीं। बहुत श्रीषेण-चन्द्रकीर्ति-अमरकीर्ति इस प्रकार रही है।२६ संभव है कि आचार्य अमितगति के गुरुजन धारा या उसके ११. माणिक्यनन्दी .. ये धारा निवासी थे और वहाँ दर्शन समीपवर्ती स्थानों में रहे हों। अमितगति ने सं. १०५० से १०७३ ।। शास्त्र का अध्ययन करते थे। इनकी एक मात्र रचना परीक्षामुख तक २३ वर्ष के काल में अनेक ग्रंथों की रचना वहाँ की थी।५ नामक एक न्यायसूत्र ग्रन्थ है। जिसमें कुल २०७ सूत्र है। ये सूत्र कीथ१६ के अनुसार अमितगति क्षेमेन्द्र से अर्धशताब्दी सरल सरस और गम्भीर अर्थ द्योतक है। माणिक्यनन्दी ने आचार्य पहले हुए थे। उनके 'सुभाषितरत्नसंदोह' की रचना ९९४ वि.सं. में अकलंक देव के वचनसमुद्र का दोहन करके जो न्यायामृत हुई थी और उनकी धर्मपरीक्षा बीस वर्ष के अनन्तर लिखी गई। निकाला वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का द्योतक है।१८ १.सुभाषितरत्नसंदोह में ३२ परिच्छेद हैं जिनमें प्रत्येक में १२. नयनन्दी : ये माणिक्यनन्दी के शिष्य थे। इनके द्वारा साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें जैन- रचित 'सुदर्शनचरित्र' एक खण्डकाव्य है जो महाकाव्यों की श्रेणी नीतिशास्त्र के विभिन्न दष्टिकोणों का आपाततः विचार किया में रखने योग्य है। इसकी रचना वि.सं. ११०० में हुई।१९ सकल गया है, साथ साथ ब्राह्मणों के विचार और आचार के प्रति विहिविहाण इनकी दूसरी रचना है जो एक विशाल काव्य है। इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है। प्रचलित रीति के अनुसार स्त्रियों इसकी प्रशस्ति में इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई पर खूब आक्षेप किये गये है और एक पूरा परिच्छेद वेश्याओं के है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने के प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख सम्बन्ध में है। जैनधर्म के आप्तों का वर्णन २८ वें परिच्छेद में करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन-जैनेतर और कुछ समसामयिक किया गया है। ब्राह्मणधर्म के विषय में कहा गया है कि वे उक्त विद्वानों का भी उल्लेख किया है। समसामयिक विद्वानों में श्रीचन्द्र, आप्तजनों की समानता नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्त्रियों के पीछे प्रभाचन्द्र, श्रीकुमार का उल्लेख किया है। राजा भोज ने हरिसिंह कामातुर रहते हैं; मद्यसेवन करते हैं और इन्द्रियासक्त होते हैं। के नामों के साथ बच्छराज और प्रभु ईश्वर का भी उल्लेख किया २. धर्मपरीक्षा : इसमें भी ब्राह्मण धर्म पर आक्षेप किये है जिसने दुर्लभ प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। यह ग्रन्थ गये हैं और इससे अधिक आख्यानमूलक साक्ष्य की सहायता इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का है। कवि के दोनों ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में है। इसका रचना काल वि.सं. ११०० है।२१ ली गई है। ३. पंसंग्रह के सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख हो चका है। (१३) प्रभाचन्द्र :-ये माणिक्यनदी के विद्याशिष्यों में प्रमख रहे हैं। ये उनके परीक्षामुख नामक सूत्रग्रंथ के कुशल टीकाकार ४. उपासकाचार ; ५. आराधनासामायिकपाठ भी हैं और दर्शनसाहित्य के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान ६. भावनाद्वात्रिंशतिका, ७. योगसार (प्राकृत)आदि रचनायें थे। आचार्य प्रभाचन्द्र ने धारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन अमितगति द्वारा लिखी गईं। इसके अतिरिक्त उनकी निम्नलिखित शास्त्र का ही अध्ययन नहीं किया, प्रत्युत्त धाराधिप भोज से रचनाएं आज उपलब्ध नहीं है:- १. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २. चन्द्रप्रज्ञप्ति प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही ३. सार्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति और ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति । विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की अमितगति बहुमुखी प्रतिभा के विद्वान थे। जैनधर्म के रचना की।२२ इनके द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैअतिरिक्त संस्कृत के क्षेत्र में भी उनका ऊँचा स्थान माना जाता १. प्रमेयकमलमार्तण्ड - यह दर्शनग्रन्थ है जो माणिक्य है। वि.सं. ९५३ में माथुरों के गुरु रामसेन ने काष्ठा संघ की एक नन्दी के परीक्षामुख ग्रन्थ की टीका है। यह ग्रन्थ राजा भोज के शाखा मथुरा में माथुर-संघ का निर्माण किया था। अमित-गति समय रचा गया था। २३ इसी माथुर संघ का निर्माण किया था। अमितगति इसी माथुर संघ के अनुयायी थे। अमितगति की गुरु-परम्परा-वीरसेन २. न्यायकुमुदचन्द्र - यह जैनन्याय का प्रामाणिक ग्रन्थ . माना जाता है।२४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास३. आराधनाकथाकोश - इसमें चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त है। इसे सिद्धचक्र भी कहते है, क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के समन्तभद्र और अकलंक के चरित्र भी वर्णित है।२५ अंत में सिद्ध पद आया है।३१ ४. पुष्पदन्त के महापुराण पर टिप्पण ५. समाधितंत्रटीका, . ४. ज्ञानदीपिका ५. राजमतिविप्रलम्भ - खण्डकाव्य ६. प्रवचनसरोजभास्कर ७. पंचास्तिकायप्रदीप, ८. ६. अध्यात्मरहस्य - (योगसार) - इसमें ७२ संस्कृत आत्मानुशासनतिलक, ९. क्रियाकलापटीका, १०. रत्नकरण्ड- श्लोकों द्वारा आत्मशद्धि, आत्मदर्शन एवं अनभति के योग की टीका, ११. वृहत्स्वयम्भूस्तोत्रटीका १२. शब्दाम्भोजटीका। इनके भूमिका का प्ररूपण किया गया है। रचनाकाल के सम्बन्ध में जानकारी नहीं मिलती है। प्रभाचन्द्र ७. मूलाराधनाटीका ८. इष्टोपदेशटीका ९. भूपालचतुर्विंश का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये।२६ तिकाटीका १०. आराधनासारटीका ११. अमरकोशटीका १२.क्रियाकलाप - व्याकरणग्रन्थ १३. काव्यालंकारटीका - इन्होंने देवनन्दी की तत्त्वार्थवृत्ति के विषम पदों का एक अलंकारग्रन्थ १४. सहस्त्रनामस्तवनसटीक, १५. जिनयज्ञ विवरणात्मक टिप्पण लिखा। इनके नाम से अष्टपाहुड पञ्जिका, कल्पसटीक - इसका दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्धार धर्मामृत का मूलाचारटीका, आराधनाटीका, आदि ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता एक अंग है। १६. त्रिषष्टि - स्मृतिशास्त्रसटीक १७. नित्य है, जो उपलब्ध नहीं हैं। महोद्योतअभिषेकपाठस्नानशास्त्र १८. रत्नत्रयविधान, १९. १४. आशाधर :- पंडित आशाधर संस्कृत-साहित्य के अपारदर्शी अष्टांगहृदयीद्योतिनीटीका-वाग्भट के आयुर्वेदग्रन्थ अष्टांग हृदयी विद्वान थे। ये मांडलगढ़ के मूलनिवासी थे किन्तु मेवाड़ पर की टीका, २०. धर्मामृत मूल, २१ भव्यकुमुदचन्द्रिका - धर्मामृत मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमणों से त्रस्त होकर पर लिखी गई टीका। मालवा की राजधानी धारानगरी में अपनी स्वयं एवं परिवार की आशाधर काव्य, न्याय, व्याकरण, शब्दकोश, अलंकार, रक्षा के निमित्त अन्य लागा क साथ आकर बस गय था प. धर्मशास्त्र योगशास्त्र. स्तोत्र और वैद्यक आदि सभी विषयों में आशाधर बघेरवाल जाति के श्रावक थे। इनके पिता असाधारण थे। का नाम सल्लक्षण एवं माता का नाम श्री रत्नी था। सरस्वती १५. श्रीचन्द्र : ये धारा के निवासी थे। लाड़बागड़ संघ और नामक इनकी पत्नी थी- जो बहुत सुशील एवं सुशिक्षिता थी। बलात्कारगण के आचार्य थे। इनके ग्रन्थ इस प्रकार हैं -१. इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। इनका जन्म किस संवत् में हुआ यह तो निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता रविषेण कृत पद्मपुराण पर टिप्पण। २. पुराणसार ३. पुष्पदन्त के किंतु ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इनका जन्म वि.सं. महापुराण पर टिप्पण ४. शिवकोटि की भगवती-आराधना पर १२३४-३५ के लगभग अनुमानित है।२६ ये नालछा (धार टिप्पण। पुराणसार सं. १०८० में पद्मचरित की टीका वि.सं. जिला) में ३५ वर्ष तक रहे और अपनी साहित्यिक गतिविधियों १०८७ में उत्तर पुराण का टिप्पण वि.सं. १०८० में राजा भोज के का केन्द्र बनाया। इनकी रचनाओं का विवरण इस प्रकार है समय रचा। टीकाप्रशस्तियों में श्रीचन्द्र ने सागर सेन और प्रवचनसेन नामक दो सैद्धांतिक विद्वानों का उल्लेख किया है जो धारा के १. सागरधर्मामृत - सप्त व्यसनों के अतिचार का । | निवासी थे। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उस समय धारा में वर्णन। श्रावक की दिनचर्चा और साधक की समाधिव्यवस्था अनेक जैन-विद्वान और आचार्य निवास करते थे। इनके गुरु आदि इसकेवर्ण्य विषय हैं।२८ रचनासमाप्ति का समय वि.सं. का नाम श्रीनन्दी का। १२९६ है।२९ १६. कवि दामोदर :- वि.सं. १२८७ में ये गुर्जर देश से मालवा २. प्रमेयरत्नाकर - यह स्याद्वाद विद्या की प्रतिष्ठापना में आये और मालवा के सल्लखणपुर को देखकर संतुष्ट हो गये। आगरा करने वाला ग्रन्थ है।३९ । ये मेडेत्तम वंश के थे। पिता का नाम कवि माल्हण था जिसने ३. भरतेश्वराभ्युदय - इसमें भारत के ऐश्वर्य का वर्णन दल्ह का चरित्र बनाया था। कवि के ज्येष्ठ भ्राता का नाम जिन arodroidrotonirarodridroramodridroorhoriridr6M १४idririramiridrodroidrodroidrioritorirdridwww Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासदेव था। कवि दामोदर ने सल्लखणपुर में रहते हुए पृथ्वीधर के उल्लेख किया है कि उसने राष्ट्र कूट राजा खोट्टिगदेव की लक्ष्मी पुत्र रामचन्द्र के उपदेश एवं आदेश से तथा मल्हपुत्र नागदेव के का अपहरण किया था। इस कोश में अमरकोश की रीति से अनुरोध से नेमिनाथ चरित्र वि.सं. १८७ में परमार वंशीय राजा । प्राकृत-पद्यों में लगभग एक हजार प्राकृत शब्दों के पर्यायवाची देवपाल के शासन काल में बनाकर समाप्त किया। शब्द कोई २५० गाथाओं में दिये हैं। प्रारम्भ में कमलासनादि १७. भट्टारक श्रुतकीर्ति - ये नदी संघ बलात्कारगण और अठारह नाम-पर्याय एक एक गाथा में, फिर लोकाग्र आदि १६७ सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। ये त्रिभूवनमूर्ति के शिष्य थे। अपभ्रंश तक नाम आधी-आधी गाथा में, तत्पश्चात्, ५९७ तक एक-एक भाषा के विद्वान थे। आपकी उपलब्ध सभी रचनायें अपभ्रंश चरण में और शेष छिन्न अर्थात् एक गाथा में कहीं चार कहीं पाँच भाषा के पद्धडिया छन्द में रची गई हैं। चार रचनायें उपलब्ध हैं और कहीं छह नाम दिये गये हैं। ग्रन्थ के ये ही चार परिच्छेद कहे जा सकते हैं। अधिकांश नाम और उनके पर्याय तद्भव हैं। १. हरिवंशपुराण - जेरहट नगर के नेमिनाथ चैत्यालय . सच्चे देशी शब्द अधिक से अधिक पञ्चमांस होंगे।३४ में सं. १५५२ माघ कृष्णा पंचमी सोमवार के दिन हस्तनक्षत्र के समय इसे पूर्ण किया। २. तिलकमंजरी - यह गद्यकाव्य है और इसकी भाषा बड़ी ओजस्विनी है।३५ २. धर्मपरीक्षा - इस ग्रन्थ को भी सं. १५५२ में रचा। क्योंकि इसके रचे जाने का उल्लेख अपने दूसरे ग्रन्थ परमेष्ठि. ३. अपने छोटे भाई शोभनमुनिकृत स्तोत्र ग्रन्थ पर एक प्रकाशसार में किया है। संस्कृत-टीका। ३. परमेष्ठिप्रकाशसार - इसकी रचना वि.सं. १५५३ ४. ऋषभपंचाशिका ५. महावीरस्तुति ६. सत्यपुरीय की गरुपंचमी के दिन मांडवगढ के दर्ग और जेरहट नगर के ७. महावीरउत्साह-अपभ्रंश और ८. वीरथुई इनकी कृतियाँ है। नेमिश्वर जिनालय में हुई। १९. कवि वीर - ये अपभ्रंश भाषा के कवि थे। इनके द्वारा ४. योगसार - यह ग्रन्थ सं. १५७२ मार्गशीर्ष महीने के रचित वरांगचरित, शांतिनाथचरित, सद्धय वीर अम्बादेवी राय शुक्ल पक्ष में रचा गया। इसमें गृहस्थोपयोगी सैद्धांतिक बातों पर और जम्बूसामिचरिउ का पता चलता है। किंतु इनकी प्रथम प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनिचर्या आदि का भी चार रचनाओं में से आज एक भी उपलब्ध नहीं है। पाँचवी कृति उल्लेख किया गया है। 'जम्बूसामिचरिउ' की अंतिम प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. १०७६ में माघ शुक्ला दसवीं को लिखी गई। कवि ने ११ संधियों में १८. कवि धनपाल - ये मूलत: ब्राह्मण थे। लघु भ्राता से जैन चम्बूस्वामी का चरित्र चित्रण किया है। वीर के जम्बूसामिचरित्र धर्म में दीक्षित हुए। पिता का नाम सर्व देव था। वाक्पतिराज में ११ वीं सदी के मालवा का लोकजीवन सुरक्षित है। वीर के मुंज की विद्वत् सभा के रत्न थे। मुंज द्वारा इन्हें सरस्वती की साहित्य का महत्त्व मालवा की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक उपाधि दी गई थी। संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर इनका और लोकसंस्कृति की दृष्टि से तो है ही परन्तु सर्वाधिक महत्त्व समान अधिकार था। मुंज के सभासद होने से इनका समय ११ मालवी भाषा की दृष्टि से है। मालवी शब्दावली का विकास वीं शताब्दी में निश्चित होता है। 'वीर' की भाषा में खोजा जा सकता है। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जो इस प्रकार है - २०. मेरुतुंगाचार्य - इन्होंने अपना प्रसिद्ध ऐतिहासिक सामग्री १. पाइअ लच्छी नाम माला - इसकी प्रशस्ति के से परिपूर्ण ग्रन्थ प्रबंध चिंतामणि वि.सं. १३६१ में लिखा। इसमें अनुसार कर्ता ने अपनी भगिनी सुन्दरी के लिए धारा नगरी में पाँच सर्ग हैं। इसके अतिरिक्त विचारश्रेणी स्थविरावली और वि.सं. १०२९ में लिखी थी, जबकि मालवनरेन्द्र द्वारा वि.सं.१०२९ महापुरुषचरित या उपदेशशती जिसमें ऋषभ देव, शांतिनाथ में मान्यखेट लूटा गया था। यह घटना ऐतिहासिक प्रमाणों से नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर तीर्थकरों के विषय में भी सिद्ध होती है। धारा नरेश हर्षदेव ने एक शिलालेख में जानकारी है. की रचना की। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास२१. तारण स्वामी - ये तारण-पंथ के प्रवर्तक आचार्य थे। ९. संगतिमंडन - यह संगति से सम्बन्धित ग्रन्थ है। इनका जन्म पुहुपावती नगरी में सन् १४४८ में हुआ था। इनके १०. कविकल्पद्रुमस्कन्ध - इस ग्रन्थ का उल्लेख मंडन पिता का नाम राढा साव था। वे दिल्ली के बादशाह बहलोल लेना लोदी के दरबार में किसी पद पर कार्य कर रहे थे। आपकी शिक्षा २३. धनदराज - यह मंडन का चचेरा भाई था। इसने शतकमय श्री श्रुतसागर मुनि के पास हुई। इन्होंने चौदह ग्रन्थों की रचना २२. की, जिनके नाम इस प्रकार हैं (नीति, शृंगार और वैराग्य) की रचना की। नीतिशतक की प्रशस्ति से विदित होता है कि ग्रन्थ उसने मंडपदुर्ग में सं. १४९० में १. श्रावकाचार २. मालाजी ३. पंडितपूजा ४. कलम - लिखे। बत्तीसी, ५. न्यायसमुच्चयसार ६. उपदेशशुद्धसार ७. त्रियंगी आगे और विस्तार में न जाते हए इतना ही कहना पर्याप्त सार, ८. चौबीस ठाणा ९. ममलपाहु, १०. सुन्नस्वभाव ११. सिद्धस्वभाव १२. रवात का विशेष १३. छद्मस्थ वाणी और होगा कि मालवा में जैन-विद्वानों की कमी नहीं रही है। यदि इस दिशा में और भी अनुसंधान किया जाए तो जैन विद्वानों और १४. नाम माला। उनकी रचनाओं पर एक अच्छा ग्रन्थ तैयार हो सकता है। २२. मंत्रीमंडन : यह झांझण का प्रपौत्र और बाहड़ का पुत्र था। विश्राम है कि इस ओर ध्यान दिया जायेगा। यह बहुमुखी प्रतिभावान था। मालवा के सुलतान होशंग गौरी का प्रधानमंत्री था। इसके द्वारा लिखे गये ग्रंथों का विवरण इस सन्दर्भ प्रकार है १. संस्कृति-केन्द्र उज्जयिनी (पृष्ट ११२-११४) में विस्तृत विवरण १. काव्यमंडन - इसमें पांडवों की कथा का वर्णन है।। उज्जयिनी - दर्शन, पृष्ठ ९३ २. शृंगार मंडन - यह शृंगार रस का ग्रन्थ है। इसमें १०८ विस्तृत विवरण के लिए द्रष्टव्य (क) श्री राजेन्द्र सूरि स्मारक श्लोक हैं। ग्रन्थ, पृ. ४५२ से ४५९ (ख) श्री पट्टावली पराग संग्रह, पृ१३६ ३. सारस्वतमंडन - यह सारस्वत व्याकरण पर लिखा ४. स्व. बाबू श्री बहादुरसिंह जी सिंधी स्मृति ग्रन्थ, पृ.१० गया ग्रन्थ है। इसमें ३५०० श्लोक हैं। The Jain Sources of the History of Ancient India. Page 150-151 ४. कादम्बरीमंडन - यह कादम्बरी का संक्षिप्तीकरण है ६. संस्कृति-केन्द्र उज्जयिनी, पृ. ११८ जो सुलतान को सुनाया गया था। इस ग्रन्थ की रचना सं. १५०४ ७. वही, पृ. ११८ में हुई थी। ८. . वही, पृ. ११६ 9. The Jain sources of the History of India, ५. चम्पूमंडन - यह ग्रन्थ पांडव और द्रौपदी के कथानक Page 195 andonward. पर आधारित जैनसंस्करण है। रचना-तिथि सं. १५०४ है। १०. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृ. ३५१-३५२ ६. चन्द्रविजयप्रबंध - इस ग्रन्थ की रचना-तिथि सं. ११. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. ११६ १५०४ है। इसमें चन्द्रमा की कलाएँ, सूर्य के साथ युद्ध और १२. अनेकान्त, वर्ष १८ किरण ६, पृ. २४२ एवं आगे चन्द्रमा की विजय आदि का वर्णन है। १३. गुरू गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ ५४४ ७. अलंकारमंडन - यह साहित्यशास्त्र का पाँच परिच्छेद १४. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, प्र. ८६ में लिखित ग्रन्थ है। काव्य के लक्षण, भेद और रीति. काव्य के १५. गुरु गोपाल दास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ ५४५ दोष और गुण, रस और अलंकार आदि का इसमें वर्णन है। १६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग - २, पृ. २८६-८७, इसकी रचनातिथि भी सं. १५०४ है। अनुवादक-मंगल देव शास्त्री १७. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग-२, ८. उपसर्गमंडन - यह व्याकरण-रचना पर लिखित ग्रन्थ है। पृष्ठ ३४४-४५ nanodwordarsanoramidnironioradnoramirontraramid१६Horsriraramidniramirsindanbarodairandavar Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१८. गुरु गोपाल दास वरेया स्मृतिग्रन्थ, पृ. 546 29. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. 114 15. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 163 30. वीरवाणी, वर्ष 18, अंक 13, पृ. 21 20. गुरुगोपाल दास वरैया स्मृति-ग्रन्थ, पृ. 546-48 31. वही, पृ. 21-22 21. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 64 23. वही, पृ. 548 24. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 89 25. वही, पृ. 168 26. गुरु गोपालदास वरैया स्मृतिग्रन्थ, पृ. 550 27. अनेकान्त, वर्ष 16 किरण 2 जून 1964, पृ. 550 28. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला, पृ. 346 34. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. 195-96 35. वही, पृ. 164 36. मंत्री-मंडन से सम्बन्धित अधिक जानकारी के लिए देखें - (क) जैन साहित्य नो इतिहास, मो.क. देसाई (ख) The Jain Antiquary, Vols IX No. II of 1943 & XI No.2 of 1946 Midnidirantimidniromidnidiaridrioririramira-[ 17 60miridminironironidiobridniromanianiramiove