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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास(२) 'कल्याणमंदिरस्तोत्र' ४४ श्लोकों में है। यह भगवान् अपरनाम विशाखाचार्य, संघ सहित दक्षिण के पुन्नाट देश को गये पार्श्वनाथ का स्तोत्र है।इसकी कविता में प्रसाद गुण कम और थे। कथाओं में कुछ नाम व शब्द जैसे मेदज्ज (मेतार्य), विज्जदाड़ कृत्रिमता एवं श्लेष की अधिक भरमार है। परन्तु प्रतिभा की (विद्युदंष्ट्र) प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए हैं जिससे अनुमान होता है कमी नहीं है।
कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत-कृति के आधार पर लिख (३) वर्धमान शत्रिंशिधास्तोत्र ३२ श्लोकों में भगवान्
रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोश को आराधनोधृत कहा है, महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। प्रसादगुण
जिससे अनुमानतः भगवताआराधना का अनुमान होता है।११ अधिक है।
७. मानतुंग : इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी विचार
धाराएँ हैं। इनका समय सातवीं या आठवीं शताब्दी के लगभग इन दोनों स्तोत्रोंमें सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला उच्च
माना जाता है। श्रेणी की पाई जाती है।
- रचनायें - इन्होंने मयूर और बाण के समान स्तोत्र(४) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका बड़े बड़े जैनाचार्यों ने
काव्य का प्रणयन किया। इनके भक्ताभरस्तोत्र का श्वेताम्बर की है। इसके रचनाकार को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमा स्वामि'
और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायवाले समान रूप से आदर करते और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमास्वाति' बतलाते हैं। इस ग्रंथ
हैं। कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक की टीका सिद्धसेन दिवाकर ने बड़ी विद्वत्ता के साथ लिखी है।
अन्तिम चरण को लेकर समस्यापूात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे ५. जिनसेन - ये पन्नाट सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा में हुए। जाते रहे। इस स्तोत्र की कई समस्यापूर्तियाँ उपलब्ध है१२ ये आदिपुराण के कर्ता श्रावक धर्म के अनुयायी एवं पंचस्तूपान्वय
(८) आचार्य देवसेन :- मार्गशीर्ष शुक्ला १० वि. सं. ९९० के जिनसेन से भिन्न हैं। ये कीर्तिषेण के शिष्य थे।
को धारा में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में इन्होंने अपना जिनसेन का 'हरिवंश' इतिहासप्रधान चरितकाव्य श्रेणी ग्रन्थं 'दर्शनसार' समाप्त किया।१३ इन्होंने 'आराधनासार' और का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर वर्तमान बदनावर . 'तत्त्वसार' नामक ग्रन्थ भी लिखे हैं। आलापपद्धति' और 'नयचक्र' जिला धार में की गई थी। दिगम्बरीय सम्प्रदाय के कथासंग्रहों में आदि रचनायें आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह इसका स्थान तीसरा है।
रचनाओं से ज्ञात नहीं होता। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप ६. हरिषेण : पन्नाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य समझने के लिए देवसेन की रचनायें बहत उपयोगी हैं।१४ हरिषेण हुए। इनकी गुरुपरम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, (९) आचार्य महासेन :- ये लाड़बागड संघ के पूर्णचन्द्र थे। हरिषेण इस प्रकार बनती है। अपने कथाकोश की रचना इन्होंने आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गणाकरसेनसरि के शिष्य थे। वर्धमानपुर या बढवाण - बदनावर में विनायकपाल राजा के इन्होंने 'प्रद्यम्नचरित' की रचना ११ वीं शताब्दी के मध्य भाग में शासनकाल में की थी। विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा की ये मुंज के दरबार में थे तथा मुंज द्वारा पूजित थे। न तो इनकी था। जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका एक ९८८ वि. सं. कृति में ही रचनाकाल दिया हुआ है और न ही अन्य रचनाओं का दानपत्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.क्र. की जानकारी मिलती है। ९८९, शक संवत् ८५३ में कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक
(१०) अमितगति :- आचार्य अमितगति द्वितीय माथुरसंघ परिमाण का वृहद् ग्रन्थ है। यह संस्कृतपद्यों में रचा गया है
के आचार्य थे जो माधवनसेनसूरि के शिष्य और नेमिषेण के और उपलब्ध समस्त कथाकोशों में प्राचीनतम सिद्ध होता है।
प्रशिष्य थे। अमितगति वाक्यतिराज मुंज की सभा के रत्न थे। इसमें १५७ कथायें हैं। जिनमें चाणक्य, शकराज, भद्रबाहु ।
ये बहुश्रुत विद्वान थे। इनकी रचनाएँ विविध विषयों पर उपलब्ध वररुचि, स्वामी कार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी
हैं। इनकी रचनाओं में एक पंचसंग्रह वि.सं.१०७३ में मसूतिकापूर हैं। इस कथाकोश के अनुसार भद्रबाह उज्जयिनी के समीप
वर्तमान मसूद बिलोदा, जो धार के समीप है, बनाया गया था। भाद्रपद में ही रह रहे थे और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त, anwaroornardrowarororandroinrotonorariwarotonirodrira-[१२]6brGrotonirowaridniromirandirirandaridridroidrorani
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