Book Title: Prachin Bharat me Desh ki Ekta
Author(s): Vasudev S Agarwal
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ प्राचीन भारत में देश की अकता उसके अन्तर्गत सच्चे अर्थों में सारे देश की गिनती होने लगी। समन्तपर्यायी या चतुरंत इन प्राचीन शब्दों का जो अर्थ था उसे भी हम मौर्य साम्राज्य के चार खूट विस्तार में पूर्ण हुअा पाते हैं। इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में समुद्रपर्यन्त पृथिवी के एकराट की जो कल्पना मिलती है वह भी मौर्यशासन की सच्चाई बन गई। देश के सौभाग्य से किसी गाढे समय में मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। उसकी स्थापना से देश यूनानियों के उस धक्के से बच गया जिसने वाहीक के संघों या पंजाब और उत्तर पश्चिम के गण राज्यों को झकझोर डाला था। मौर्य साम्राज्य का मधुर फल दो रूपों में प्रकट हुअा। एक तो इस से समस्त देश में समान संस्थानों की स्थापना हो गई। शासन के कर्मचारी, विभाग, आय के साधन, कर-व्यवस्था, यातायात के मार्ग, दण्ड और व्यवहार (दीवानी और फौजदारी) की न्यायव्यवस्था, नाप-तौल और मुद्राएं, इन सब बातों में देश ने एकसूत्रता का अनुभव किया। इससे जनता में जीवन को एकरूपता प्रदान करने वाले बन्धन दृढ़ हुए। विष्णुगुप्त का अर्थशास्त्र साम्राज्य के मंथन से उद्भूत उस एकरूपता का परिचायक महान् ग्रंथ है। उदाहरण के लिये, मौर्य साम्राज्य में जो सिक्के चालू थे उनके बहुत से निधान (जखीरे) तक्षशिला से लेकर राजस्थान, मगध, कलिंग, मध्य भारत, महाराष्ट्र, आन्ध्र, हैदराबाद, मैसूर आदि प्रदेशों में पाप गए हैं । चांदी की इन अाहत मुद्रात्रों की तौल सब जगह ३२ रत्ती थी। उन पर बने हुए रूप या चिन्ह भी सब जगह एक से पाये गए हैं। ज्ञात होता है शासन की किसी केन्द्रीय टकसाल में वे ढाले गए थे। अशोक के शिलास्तम्भ भी इसी प्रकार पाटलिपुत्र की केन्द्रीय कर्मशाला में तैयार होकर दूरस्थ स्थानों को भेजे गये थे। मौर्य साम्राज्य का दूसरा सुफल यह हुआ कि उससे देश में अन्तर्राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई। भारतवर्ष की जनता अपने चारों ओर के देशों से सच्चे अर्थ में परिचित हुई। भारतवर्ष से जाने वाले लम्बे राजमार्ग और अधिक लम्बे होकर दूसरी राजधानियों से जुड़ गए जिनके द्वारा यहां का व्यापारिक यातायात विदेशों के साथ बढ़ा। उन्हीं मार्गों से विदेशी दूतमंडल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र की ओर मुड़े और भारतवर्ष से अनेक धर्म-प्रचारक विदेशों में गए। सम्राट अशोक भारतीय प्रणाली के सबसे अधिक सुन्दर और मधुर फल कहे जा सकते हैं। देहरादून के समीप यमुना के किनारे कालसी के शिलालेख में इन पांच विदेशी राजाओं के नाम गिनाए गए हैं। १. सीरिया और पश्चिमी एशिया के राजा अंतियोक (२६१-४६ ई. पू.) २. मिस्र के तुलमय या टालेमी (२८५-२४७ ई. पू.), ३. मेसीडोनिया के अंतिकिन (२७६-२३६ ई. पू.), ४. साइरीनी (उत्तरी अफ्रीका) के मग (३००-२५० ई. पू.) और ५. कोरिन्थ के अलिकसुंदर या अलेक्जेंडर (२५२-२४४ ई. पू.)। यह तेहरवां शिलालेख लगभग २५२-२५० ई. पू. में उत्कीर्ण कराया गया जब कि ये सब राजा एक साथ जीवित रहे होंगे। अशोक के भेजे हुए दूतमंडल इनके दरबारों में शांति और मानवता का मैत्री-संदेश लेकर गए थे। उस समय के सभ्य संसार को अपने साथ लेकर आगे बढ़ने का सत्संकल्प अशोक के मन में आया था बौद्ध आख्यानों में जो अशोकावदान के नाम से प्रसिद्ध है । और भी उल्लेख हैं जिनसे ज्ञात होता है कि अशोक के प्रयत्नों से भारत का सम्बन्ध तिब्बत, बर्मा, सिंहल, स्याम, कम्बोज आदि देशों से जुड़ गया और भारत से धर्म और संस्कृति की धाराओं का यशःप्रवाह इन पड़ोसी देशों में भी फैल गया। इस प्रकार पहली बार वह कल्पना ऐतिहासिक सत्य के रूप में उभर कर सामने आ गई जिसने जम्बू द्वीप के देशों की सुनहली माला में भारत को मध्यमणि बना दिया। इसका वह ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और वरिष्ठ रूप श्राने वाली शताब्दियों में और भी निखरता गया। सचमुच भारत की पृथिवी अट्ठारह द्वीपों की अष्टमंगलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10