Book Title: Prachin Bharat me Desh ki Ekta Author(s): Vasudev S Agarwal Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 4
________________ आचार्य विजयबल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ एकता का प्रादुर्भाव करता, जिसे सर्वभौम या चक्रवर्ती राज्य कहते हैं। महाभारत से ज्ञात होता है कि श्राधिपत्य या अधिराज्य शासन प्रणाली यह भी जिसमें अन्य राजाओं से कर ग्रहण करके उन्हें अपने केन्द्र में पूर्ववत् सुरक्षित रहने दिया जाता था। पाण्डु ने कुरु जनपद की राज्यशक्ति का विस्तार करते हुए मगध, विदेह, काशी, सुहा, पुण्ड्र आदि जनपदों को अपना करद बना लिया था (आदि० १०५/१२ - २१ ) और स्वयं अधिराज्य का भोक्ता कहलाया । Ve इन दोनों से अधिक कठोर साम्राज्य का आदर्श था जिसे हम जरासन्ध के जीवन में चरितार्थ देखते हैं। सम्राट् अपने जनपद की सीमा का विस्तार करता हुआ और किसी भी राज्य को सुरक्षित न रहने देता था। सभापर्व में सम्राट् को सबके हड़पने वाला कहा गया है (सम्राज् शब्दो हि कृत्स्नभाकू, १४(२) । साम्राज्य का आधार बल था ( सभा १४११२, बलादेव साम्राज्यं कुरुते ) । साम्राज्य से विपरीत पारमेष्ठ प्रणाली थी जो गणराज्यों में देखी जाती थी। यह शासन कुलों के आधार पर बनता था। उसमें प्रत्येक घर का ज्येष्ठ व्यक्ति " राजा " कहलाता था (गृहे गृहे हि राजानः, सभा. १४।२) जैसे शाक्यों में और लिच्छवियों में प्रत्येक क्षत्रिय राजा कहलाता था। वे सब मिलकर अपने आपस में किसी एक को श्रेष्ठ मान लेते थे । वही उस समय उस राज्य का अधिपति होता था । ' जिस प्रकार साम्राज्यशासन का आधार बल था उसी प्रकार पारमेष्ठ्य या गणशासन का आधार शम अर्थात् शान्ति की नीति थी । इस देश में किसी समय कुलों पर श्राश्रित इस शासनप्रणाली का बहुत प्रचार था और जनता इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखती थी। कुलशासनप्रणाली में दूसरे कुल या व्यक्ति के अनुभाव या व्यक्ति गरिमा का सम्मान किया जाता था एवम् जनपद के भीतर दूर दूर तक जनता का श्रेय या कल्याण दिखाई पड़ता था ( सभा. १४ | ३ | ४ ) | साम्राज्य में यह श्रेय अधिकतर राजपरिवार या राजधानी के लोगों तक ही सीमित कर रह जाता था। भारतीय इतिहास का रंगमंच इन विभिन्न राज्यप्रणालियों की लीलाभूमि रही है। देश की एकता का भाव न केवल धर्म से अग्रसर हुआ बल्कि राजात्रों की राजनीति के द्वारा भी समय समय पर उसकी स्थापना होती रही । जिस प्रकार यूनान में स्पार्टा और एथेन्स अन्य पौर राज्यों के ऊपर प्रबल हो गए थे वैसे ही अपने देश में बहुत कशमकश के बाद मगध का साम्राज्य ऊपर तैर आया । बृहद्रथवंशी जरासंध से जो प्रवृत्ति शुरू हुई वही शिशुनाग और नन्दवंशी राजाओं के समय में आगे बढ़ी। पहले तो इस प्रकार के विस्तार के विरुद्ध जनता में प्रतिक्रिया भी थी किन्तु पीछे लोग इसके प्रति अभ्यस्त और सहिष्णु बन गए। शिशुनागवंशी अजातशत्रु ने लिच्छवि गय की परवाह न करके उन पर भी हमला कर दिया। ऐसे ही नन्दवंश के नन्दिवर्धन और महापद्म नन्द ने अनेक जनपदीय इकाइयों का अन्त करके मगध साम्राज्य की प्रचल सत्ता स्थापित की। इस प्रवृत्ति का सबसे विकसित रूप चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में दृष्टिगोचर हुआ । ऐतिहासिक काल में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त के राज्य में हम कई प्राचीन आदशों को चरितार्थ हुआ देखते हैं । उसका राज्य अफगानिस्तान से लेकर दक्षिणा में मैसूर तक फैला हुआ था जिसे सर्वभूमि या सर्वपृथिवी कहा जाता था। १. एवमेवाभिजानन्ति कुले जाता मनखिनः । कश्चित्कदाचिदेतेषां भवेच्छ्रेष्ठो जनार्दनः । (सभा. १४/६ ) २. राममेव परं मन्ये न तु मोधा भवेच्छम (सभा १४१५ ) | गणों की जनता कुछ इस प्रकार सोचती थी- राजनीति में राम का अवलम्बन ही सच्चा शम है। मोक्षसाधन से जो शम मिलता है वह कोई शम नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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