Book Title: Prachin Bharat me Desh ki Ekta Author(s): Vasudev S Agarwal Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 9
________________ प्राचीन भारत में देश की अंकता विराट् परिषद् ने राजा और प्रजा के चरितों को एकता के सांचे में ढाल दिया हो। उन चरितों के बाह्यरूप और मन की प्रेरणाएं सर्वत्र समान हैं। शासनप्रणाली की जिस एकरूपता की ओर देश बढ़ रहा था उसका एक अच्छा उदाहरण समस्त देश में भूमि का बन्दोबस्त और कर-निश्चिति के रूप में मिलता है। इसे “ग्रामसंख्या" कहा जाता था। इसका अर्थ अंग्रेजी के हिसाब से लैंड सर्वे किया जा सकता है। शुक्रनीति से यह सूचित होता है कि इस प्रकार की एक ग्रामसंख्या गुप्तकाल के लगभग की गई थी, जिसमें प्रत्येक ग्राम, मण्डल, प्रदेश आदि द्वारा देय भूमिकर चांदी के कार्षापण सिक्कों में निश्चित कर दिया गया था। ये संख्याएं नामों के साथ शिलालेखों में जुड़ी हुई मिलती हैं, जैसे ऐहोली के लेख में महाराष्ट्र के तीन भागों की ग्रामसंख्या अर्थात् भूमि का लगान ६६ सहस्र कहा गया है। मध्यकाल अर्थात् दशमी शती के लगभग फिर इस प्रकार कर बन्दोबस्त किया गया जिसका उल्लेख "अपराजित पृच्छा" नामक ग्रन्थ में पाया है। वहां स्पष्ट कहा है कि ग्रामसंख्या, देशप्रमाण और राजात्रों का मान तीनों का आधार “रूप” था (ग्रामाणां च तथा संख्या देशानां च प्रमाणतः। राज्ञां च युक्तिमानं च अलंकारैस्तद्रूपतः, अपराजित पृच्छा ३८॥३)। यहां रूप शब्द का अर्थ रुपया अर्थात् अाजकल की परिभाषा में जमाबन्दी है । राजाओं का युक्तिमान अर्थात् छुटाई-बड़ाई के आधार पर दरबार आदि में उनका सम्मान इसी बात पर आश्रित था कि उनके राज्य की श्राय क्या थी। सामन्त, माण्डलिक, महामाण्डलिक, नृप, महाराज, आदि पद आप के हिसाब से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते थे। इसी हिसाब से सामन्त, माण्डलिक या राजा लोग मुकुट आदि आभूषण भी भिन्न भिन्न प्रकार के पहिनते थे जिससे प्रतिहारी भी स्वागत सत्कार के समय उन्हें पहिचान लेते थे। इसका उल्लेख “मानसार" नामक ग्रन्थ में आया है (अध्याय ४६)। अपराजित पृच्छा में देश के मुख्य मुख्य भागों की ग्रामसंख्या या जमाबन्दी दी हुई है; जैसे कान्यकुब्ज ३६ लाख, गौड़ १८ लाख, कामरूप ६ लाख, मण्डलेश्वर १८ लाख, कार्तिकपुर ६ लाख, चोल देश ७२ लाख, दक्ष राज्य ७|| लाख, उज्जयिनी १८ लाख ६२ हजार, शाकम्भर १ लाख २५ हजार, लाट, गुर्जर, कच्छ, सौराष्ट्र संमिलित २ लाख, मरुकोटि और मरुमण्डल (मेवाड़, मारवाड़) ३|| लाख, सिन्धुसागर ३॥ लाख, खुरसाण या खुराषाण ४० लाख, त्रिगर्त २ लाख, अहिराज्य १२ लाख, गुणाद्वीप ६॥ लाख, जलन्धर ३|| लाख, कश्मीर-मण्डल ६६१८०। इस प्रकार इन २१ राज्यों की प्राय की ग्राम-संख्या या भूमि कर ६६६३३१८० होता है। स्कन्दपुराण के माहेश्वर-खण्ड के अन्तर्गत कुमारिका खण्ड के अध्याय ३९ में कुमारी द्वीप अर्थात् भारत देश की ग्रामसंख्या का योग ९६ करोड़ कहा गया है, किन्तु प्रत्येक के लिये जो ग्रामसंख्याएं वहां दी हैं, उनका योग २८,८०,८६,००० होता है। कुमारिका खण्ड में तो पत्तन अर्थात् समुद्रपत्तन, जलपत्तन, या पोतपत्तनों में चुंगी से होनेवाली अाय भी ७२ लाख कही गई है (३६१६३)। अवश्य ही ये संख्याएं तभी सम्भव हैं जब समस्त देश में राजनैतिक और आर्थिक एकसूत्रता जीवन की वास्तविक सचाई बन चुकी है । मध्यकालीन हिन्दू राज्यों की इन संख्यात्रों की परम्परा में ही "आईन-अकबरी" की वह संख्या है, जिसमें इलाहाबाद, आगरा, अवध, अजमेर, अहमदाबाद, बिहार, बंगाल, दिल्ली, काबुल, लाहोर, मुलतान, मालवा साम्राज्य के इन बारह सूबों की कुल आय ३६२६७५५२४६ दाम अर्थात् ६,०७,४३,८८१ रुपये कही गई है। पीछे से बिरार, खानदेश और अहमदनगर इन तीन सूत्रों के और या जाने से राज्य की आय में वृद्धि हुई होगी। ये अांकड़े ऊपर लिखे हुए इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि देश के भिन्न भिन्न राज्यों में बंटे होने पर भी १. भारत का विदेशों के साथ प्रणिधि-संबंध, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, विक्रमांक उत्तरार्ध, संवत् २००१, पृ. २७०-२७४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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