Book Title: Prachin Bharat me Desh ki Ekta Author(s): Vasudev S Agarwal Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 8
________________ ६२ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ जाति का मूल आवास स्थान था । यहीं गोबी और मंगोलिया के बीच में कहीं चन्द्रद्वीप था जहां से निकास होने के कारण भारत के कनिष्क श्रादि शक तुषार राजा चन्द्रवंशी कहलाते थे । इस प्रकार भारत की स्थिति उस पट- मंडप के समान थी जिसके दीप्तिपट चारों दिशाओं में प्रकाश और वायु का आवाहन करने के लिये उन्मुक्त हो गए थे । भारत के जल और स्थल मार्गों पर इस समय भूतपूर्व चहलपहल दिखाई देती थी । एक ओर राजदरबारों में विदेशी दूतमंडलों के थाने जाने का तांता लगा रहता था, तो दूसरी ओर भारतीय समुद्र तट के पोतपत्तन नानादेशीय व्यापारियों से भरे रहते थे। जब इन दूत-मंडलों का आदान-प्रदान हो रहा था, उस समय अंतर्राष्ट्रीय जगत् में भारत की ख्याति किसी जनपद के रूप में न थी, बल्कि उसे एक महान् देश की प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी । भारतीय दूत, भारतीय विद्वान्, इन सब पर भारत के एक खंड की सीमित छाप न थी वे अपने साथ समग्र देश की राष्ट्रीय प्रतिष्ठा लेकर विदेशों में पहुंचते थे । जनता के मनोराज्य में देश की सत्ता, एक ओर अविकल थी। तभी देश के प्रत्येक भाग से झुंड के झुंड ब्राह्मण दूसरे भागों में जाकर बस जाते थे और राजाओं द्वारा उनके लिये भूमि और जीविका का प्रबन्ध किया जाता था। समतट के ब्राह्मण राजकुल में जन्मे हुए शीलभद्र विद्वान् नालन्दा विश्वविद्यालय में आकर वहां के प्राचार्य हो गए। कश्मीर के विद्वान् बिल्हण (११ वीं शती) कल्याणी के चालुक्य वंशी सम्राट् विक्रमादित्य पष्ठ (१०७६ - ११२७ ) के राजकवि के रूप में विद्यापति पदवी से सुशोभित हुए बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित काव्य में करहाट की राजकुमारी चन्द्रलेखा के स्वयम्बर में देश का जो चित्र खींचा है वह कालिदास के इन्दुमती स्वयम्बर का ही परिवर्तित रूप है। यहां मंडप में अयोध्या, चेदि, कान्यकुब्ज, चर्मण्वती, तटदेश, कालंजर गिरि, गोपाचल, मालव, गुर्जर पाण्ड्य, चोल देशों के राजा उपस्थित हुए थे। वह स्वयम्बर एक देश की समान रीति-नीति की ओर संकेत करता है मध्यकाल की राजनीति जिस प्रकार देश की एकता व्यक्त करती है वह विक्रमादित्य चालुक्य, राजचोल, राजेन्द्रचोल, सिद्धराज, भोज, कर्ण, गांगेयदेव, गोविन्दचन्द्र, विग्रहपाल आदि पचासों सम्राटों की दिग्विजयपद्धति, राज्यप्रणाली, गुणग्राहकता, धार्मिक जीवन, पारिवारिक जीवन, आदि सदृशी विशेषतानों से प्रकट होता है । सर्वत्र एक समान आदर्श और एक सी जीवनविधि पाई जाती है, जैसे देश-व्यापी किसी १. चीन की अनुश्रुतियों के अनुसार चीन सम्राट् हो-ती के समय (८६ - १०५ ई०) में भारतीय राजदूत चीन गये। मिलिन्द पन्ह के अनुसार, चीनी सम्राट हिवंती के दरबार में महाचत्र रुद्रदामा के दूत सिन्धु प्रान्त से उपहार लेकर गए थे। लगभग ११० ई० में अलेक्जैंडिया के शासक द्वारा भेजा हुआ पैंटेनस नामक राजदूत भारत आया । लगभग २३६ ई० में सम्राट कॉस्टैंटाइन के यहां भारतीय प्रणिधिवर्ग पहुंचा। ५१८ ई० में उत्तरी माईवंश की चीनसमाधी द्वारा भेजा हुआ नामक दूत पश्चिमी भारत आया। ५३० ई० में भारतीय राजदूत उपहार लेकर कुस्तुंतुनियां के सम्राट जुस्टोनियन के दरबार में पहुंचे। ५४१ ई० में भारतीय राजदूत चीनी सम्राट् ताइत्सुङ्ग के दरबार में गए । ६०७ ई० में सिंहल के हिन्दू शासक के दरबार में चीनी सम्राट् का भेजा हुआ दूत मंडल आया । चालुक्य सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में ईरानी सम्राट् खुसरूपरवेज (५१५- ६२५ ) का भेजा हुआ प्रणिभिवर्ग आया । ६४१ में हर्ष का माधाय राजदूत चीन गया और ६४५ ई० में चीन सम्राट् का प्रणिधिवर्ग सम्राट इर्ष के दरबार में आया । बाण ने तो हर्षचरित में स्पष्ट लिखा है कि सब देशों से आये हुए दूत मंडल हर्ष के दरबार में ठहरे हुए थे (सर्वदेशान्तरागतश्च दूतरूपास्यमानम् हर्ष० उच्छ्रवास २, १०६०) यह सिलसिला इसी प्रकार आगे भी जारी रहा। सुमात्रा और यवद्वीप के शासक शैलेन्द्र वंशी राजा बालपुत्रदेव ने मुंगेर के राजा देवपालदेव के पास दूत भेजकर नालंदा विश्वविद्यालय में चातुर्दिश भिक्षुसंघ के लिये पांच गांव दान में देने का ताम्रपट प्राप्त किया जो नालन्दा महाविहार की खुदाई में प्राप्त हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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