Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana Author(s): Aruna Anand Publisher: B L Institute of Indology View full book textPage 2
________________ "मोक्खेण जोयणाओ जोओ सव्वो वि धम्मवावारो' मोक्ष से योजित करने वाला अर्थात् मोक्ष की ओर ले जाने वाला समस्त धर्मव्यापार 'योग' है। जैन आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित 'योग' की यह परिभाषा जहाँ जैन- परम्परागत व्याख्या से भिन्न प्रतीत होती है, वहीं पतञ्जलि के योग लक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' के समकक्ष भी है। प्राचीन जैन आगमिक परम्परा में कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में प्रचलित 'योग' शब्द कर्म-बन्ध का हेतु है, मोक्ष का हेतु नहीं। मोक्ष के हेतु के रूप में प्रचलित तप और ध्यान जैसी क्रियाओं का विवेचन जैन आगमों में यत्र-तत्र उपलब्ध है। चूंकि योग का आधार आचार है, इसलिए प्राचीन जैन ग्रन्थों में योग-साधना का प्रतिपादन आचारशास्त्र के रूप में ही हुआ है। यही कारण है कि प्राचीन जैनयोग-परम्परा में पातञ्जलयोग के समान कोई व्यवस्थित ग्रन्थ नहीं लिखा गया था। परवर्ती काल में जैनाचार्यों ने जैनयोग का निरूपण करते समय महर्षि पतञ्जलि के द्वारा निरूपित अष्टांगयोग-पद्धति के साथ समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। जैनयोग-साधना का व्यवस्थित एवं सर्वांगीण स्वरूप प्रस्तुत करने वाले स्वतंत्र व मौलिक ग्रन्थों की रचना का शुभारम्भ लगभग 8वीं शती के आसपास आचार्य हरिभद्र ने किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती योग विषयक विचारों में प्रचलित आगम-शैली की प्रधानता को तत्कालीन परिस्थितियों एवं लोकरुचि के अनुरूप परिवर्तित कर जैनयोग का एक ऐसा अभिनव, विविधलक्षी एवं समन्वित रूप प्रस्तुत किया, जो पातञ्जलयोग-साधना के समकक्ष तो था ही, साथ जैन परम्परा के सिद्धातों के अनुरूप भी था। पश्चाद्वर्ती जैन आचार्यों ने उनका अनुसरण कर जैनयोग- साहित्य को समृद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रस्तुत पुस्तक में आ० हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय के योग-ग्रन्थों के आधार पर पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए दोनों परम्पराओं में निहित साम्य, वैषम्य एवं वैशिष्ट्य दर्शाने का प्रयास किया गया है। ISBN: 81-208-1787-7 Jamation International Rs.695 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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