Book Title: Parshvanath Charitam
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 3
________________ पार्श्वनाथचरित संस्कृत साहित्य के इतिहास में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलना निसन्देह विचारणीय है। "राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व"' पुस्तक में सर्वप्रथम लेखक ने भट्टारक सकलकीर्ति पर जब विस्तृत प्रकाश डाला तो विद्वानों का इस ओर ध्यान गया और सहयपुर विश्वविद्यालय से डा० बिहारीलाल जैन ने मट्टारक सकलकीर्ति पर एक शोध प्रबन्ध लिख कर उनके जीवन एवं कृतित्व पर गहरी खोज की और बहुत ही सुन्दर रीति से उनका मूल्यांकन प्रस्तुत किया। प्रसन्नता का विषय है कि उदयपुर विश्वविद्यालय ने शोध प्रबन्ध को स्वीकृत करके श्री बिहारीलाल जैन को पी-एच० डी० की उपाधि से सम्मानित भी कर दिया है । डा० जैन ने सकलकीर्ति की आयु एवं जीवन के सम्बन्ध में कुछ नवीन तथ्य उपस्थित किये हैं। लेकिन सकलकीर्ति के विशाल साहित्य को देखते हुये अभी उनका और भी विस्तृत मूल्यांकन होना शेष है। अभी तक विद्वानों ने सर्वे के रूप में उनके साहित्य का नामोल्लेख किया है तथा उनका सामान्य परिचय पाठकों के समक्ष उपस्थित किया है। किन्तु उनकी प्रत्येक कृति ही अपूर्व कृति है जिसमें सभी प्रकार की ज्ञान सामग्री उपलब्ध होती है। उन्होंने काव्य लिखे, पुराण लिखे एवं कथा साहित्य लिखा और जन साधारण में उन्हें लोकप्रिय बनाया। उन्होंने संस्कृत में ही नहीं, राजस्थानी भाषा में भी लिखा। इसमें सकरनकीर्ति के महान् व्यक्तित्व को देखा एवं परखा जा सकता है। भट्टारक सकलकीर्ति जीवन परिचय भट्टारक सकलकीर्ति का जन्म संवत् १४४३ (सन् १३८६ ) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोभा था। ये अपाहिलपुर पट्टण के रहने वाले थे। इनकी जाति हूमड थी।' 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत के अनुसार गर्भधारण करने के पश्चात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह ने इस प्रकार कहा 'तजि वयण सुणीसार, कुमर तुम्ह होइसिइए । निर्मल गंगानीर, चन्दन नन्दन तुम्ह तणुए ।।९।। जलनिधि गहिर गम्भीर खीरोपम सोहामणुए । ते जिहि तरण प्रकाश जग उद्योतन जस किरणि ।।१०।।' बालक का नाम पूनसिंह अथवा पूर्णसिंह रखा गया । एक पट्टावलि में इनका नाम पदर्थ भी दिया हुआ है । द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रति दिन बढ़ने लगा। उसका वर्ण राजहंस के समान शुभ्र था तथा शरीर बत्तीस लक्षणों से युक्त था । पाँच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया । बालक कुशाग्र बुद्धि का था इसलिए शीघ्र ही उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया । विद्यार्थी अवस्था में भी इनका अर्हद् भक्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था तथा वे क्षमा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य आदि धर्मों को जीवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे । गार्हस्थ्य जीवन के प्रति विरक्ति १- साहित्य शोध विभाग श्री दि० जैन अ. क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा प्रकाशित । २-हरथी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य ऊअरि सुपर । चोऊद त्रिताल प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जरमीउ ।। न्याति माहि मुहुतवत बड़ हरघि बखाणिइये। करमसिंह वितपन्न उदयवंत इम जाणीए ।।३।। शाभित रस अरधांगि, भूलि सरीस्य सुन्दरीय । सील स्यंगारित अगिं पेखु प्रत्यक्ष पुरंदरीय ।।४।। - सकलकीर्ति राम

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