Book Title: Pandava Puranam
Author(s): Shubhachandra Acharya, Jindas Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 12
________________ (७) पाण्डवचरित्र इसकी रचना श्वेताम्बर सम्प्रदायके श्री देवप्रभसूरिद्वारा वि. सं. १२७० में की गई है। इसमें पाण्डवोंके तथा उनसे सम्बद्ध होनेके कारण भगवान् नेमि, कृष्ण और बलदेव आदि महापुरुषोंके चरित्रका बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। आठ हजार श्लोकसंख्याप्रमाण यह ग्रन्थ १८ सगोंमें विभक्त है । प्रस्तुत पाण्डवपुराणमें जो अनेक विस्तृत कथानक पाये जाते हैं उनका आधार यह पाण्डवचरित्रही रहा है, ऐसा हमारा विश्वास है। उदाहरणके लिये हम पराशर राजा और गुणवतीके कथानकको ले सकते हैं। यहां कहा गया हैं कि किसी समय पराशर राजा मनोविनोदके लिये यमुनाकिनारे गये थे। वहां उन्हें नावपर बैठी हुई एक सुन्दर कन्या दिखी। उसे देखकर वे मुग्ध हो गये। एतदर्थ कन्यासे उसका वृत्त पूछकर उन्होंने उसके पिता नाविक ( धीवर ) से उसे अपनी सहचारिणी बनानेकी अभिलाषा प्रगट की। किन्तु जाह्नवी पत्नीसे उत्पन्न उनके पुत्र गांगेय [ भीष्म ] को लक्ष्यकर अपने दौहित्रको राज्याधिकार न प्राप्त हो सकनेकी सम्भावनासे उसने पराशरको कन्या देना स्वीकार नहीं किया। यह बात किसी प्रकार भीष्मको ज्ञात हो गई । तब भीष्मने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रतको स्वीकार कर उसके पिताको सन्तुष्ट किया। इस प्रकार उसने पराशर राजाके साथ गुणवतीका विवाह कर दिया। यही वृत्त कुछ थोड़ेसे परिवर्तनके साथ देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्र [१, १५८-२४७] में पाया जाता है। यहां पराशरका कोई उल्लेख नहीं है। साथही उक्त कन्याका नाम गुणवतीके बजाय सत्यवतीही पाया जाता है, जैसा कि वैदिक सम्प्रदायके ग्रन्थों में प्रसिद्ध है। तदनुसार यहां उक्त कन्याका विवाह शान्तनुके साथही हुआ था। गंगा पत्नीसे उत्पन्न गांगेय [ भीष्म ] इन्हीं शान्तनुकेही पुत्र थे। इतनाही भेद दोनों ग्रन्थोंके अनुसार उक्त कथानकमें पाया जाता है। शेष सब कथानकही दोनों ग्रन्थोंमें समान नहीं है, बल्कि इस प्रकरणके अनेक श्लोकभी दोनोंही ग्रन्थोंमें समानरूपसे पाये जाते हैं। [ जैसे पाण्डवपुराण पर्व ७ के श्लोक ८२, ९७, ९९ का उ. और १०० का पू. १०१ व १०९ दे. प्र. पाण्डवचरित्र पर्व १ में क्रमशः १५५, १८७, १९२, १९८ व २८८ इन संख्याओंसे अंकित जैसेके तैसे पाये जाते है ]' । बहुतसे श्लोकोंमें केवल एक दो शब्दोंका परिवर्तन पाया जाता है। १ इनमेंसे पां. पु. ७-१०१ और दे. प्र. पां. च. १-१९८ वें श्लोकमें अपनी अपनी मान्यताके अनुसार 'गुणवत्यास्तनूजस्य ' व ' सत्यवत्यास्तनूजस्य ' इतनामात्र पाठभेद है । इन श्लोकोंके अतिरिक्त पां. पु. के १९ वें पर्वके श्लोक २.५ दे. प्र. सूरिके पां. च. सर्ग ११ में २२३, २२४, २२५ और २२९ इन संख्याओंसे अंकित ज्योंके त्यों पाये जाते हैं २ जैसे पां. पु. (शुभचन्द्र) त्वं नृरत्न ! सपत्नोऽसि येषां तेषां शिवं कुतः। जाग्रत्यसहने सिंहे सुखायन्ते कियन्मृगाः ।। ७-९६ ॥ दे. प्र. पां. च.-नररत्न ! सपत्नोऽसि येषां तेषां कुतः सुखम् । जाग्रत्यसहने सिंहे सुखायन्ते कियन्मृगाः ॥ १-१८५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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