Book Title: Panchstotra Sangrah Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 5
________________ परन्तु कुछ ही क्षणों में पूर्ववत् मुनिश्री की स्थिति हुई, सेवकों ने पुनः कैद कर दिया, पर इस बार भी मुनिश्री बाहर आ विराजे । परेशान हो सेवकों ने राजा से सब वृत्तान्त कह सुनाया । यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ परन्तु राजा ने भी यह सोच कर कि शायद सेवकों के प्रमाट से यह हुआ है, सेवकों को पुन: कैद करने की आज्ञा दे दी । और कहा अच्छी तरह निगरानी रखो यह सब तुम लोगों के प्रमाद से हुआ है । सेवकों ने राजाज्ञा से पुन: उन्हें कैद कर दिया; परन्तु फिर वही पूर्ववत् स्थिति बनी । सकलव्रती मुनिराज इस समय तो सीधे बाहर निकलकर राजसभा में जा पहुंचे। तपस्वी मुनिराज के दिव्य शरीर की प्रभा के प्रभाव से राजा का हृदय काँप गया । उन्होंने कालिदास को बुलाकर कहा-कविराज ! मेरा आसन अब कम्पित हो रहा है । मैं अब इस सिंहासन पर एक क्षण भर भी नहीं ठहर सकता । कालिदास को कालीदेवी का इष्ट था । अतः उसने काली देवी का स्मरण किया । वह तुरन्त प्रगट हो गईं। इसी समय मुनिराज के समीप चक्रेश्वरी देवी ने आ उनके दर्शन किये । चक्रेश्वरी का रूप सौम्य और कालिका का विकराल चण्डी रूप देखकर राज्य सभा चकित हो गई। चक्रेश्वरी ने फटकार कर कालिका से कहा कि कालिके ! तूने यह क्या ठानी है, क्या तू मुनिश्री पर उपसर्ग करना चाहती है ? यदि ऐसा है तो तू ही देख लेना कि मैं भी तेरी क्या दशा कर सकूँगी । कालिका चक्रेश्वरी के वचन सुनते ही काँप उठी और नाना प्रकार के मधुर वचनों से उनकी स्तुति करने लगी । चक्रेश्वरी ने कालिका को बहुत उपदेश दिया और अन्तर्धान हो गईं.। पश्चात् कालिका ने मुनिश्री से क्षमा प्रार्थना की और वह भी अन्तर्धान हो गयीं। राजा भोज व कालिदास ने मुनि का प्रताप देखकर क्षमा मांगी और नाना प्रकार से स्तुति की । राजाभोज ने मुनिराज से श्रावक के व्रत लिये और अपने राज्य में जैनधर्म का खूब प्रचार किया। जैनधर्म की जय हो !Page Navigation
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