Book Title: Panchsangraha Tika Part_4 Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri Publisher: Shravak Hiralal Hansraj View full book textPage 9
________________ नाग टीका प्रकृत्यंतर पंचसं त्कृष्टा, ततस्तस्या पावलिकात्रिकहीनैवोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या. तथा आदारकसप्तकमप्र- - मनेन सता तद्योग्योत्कृष्टसंक्लेशेनोत्कृष्टस्थितिकं बई तत्कालोत्कृष्टस्थितिकस्वमूलप्रकृत्यन्निन प्रकृत्यंतरदलिकं च तत्र संक्रमितं, ततस्तत्सर्वोत्कृष्टांतःसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकं जातं. ॥१॥ बंधानंतरं चांतर्मुहूर्त्त स्थित्वा आहारकशरीरमारनते. तच्चारत्नमाणो लब्ध्युपजीवनेनौत्सु क्यत्नावतः प्रमादनाग्नवति. ततस्तस्य प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरमुत्पादयत आहारकसप्तकस्यांतर्मुहूर्नोना नत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या. तथा कश्चित्तथाविधपरिणामविशेषनावतो नरकगतेरुत्कृष्टां स्थिति विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां बध्वा ततः शुनपरिणामविशेपन्नावतो देवगतरुत्कृष्टां स्थिति दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां बहुमारनते. ततस्तस्यां देवगतिस्थितौ बध्यमानायां प्रावलिकाया नपरि बंधावलिकाहीनामावलिकात नपरितनी स मपि नरकगतिस्थिति संक्रमयति. ॐ ततो देवगतेरपि विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा स्थितिरावलिकामात्रहीना जाता. ॐ देवगतिं च बनन जघन्येनाप्यंतर्मुहूर्त्त कालं यावनाति. तच्चांतर्मुहूर्तमावलिकोनविंशतिसा म॥१०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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