Book Title: Panchsangraha Tika Part_4
Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 12
________________ पंचसं नाग ४ टीका २ १० उदयसंक्रमोत्कृष्टानां च प्रकृतीनां मनुजगतिसातवेदनीयस्थिरादिषट्कहास्यादिषट्कवे. दत्रयशुनविहायोगतिप्रश्रमसंस्थानपंचकप्रथमसंहननपंचकोञ्चैर्गोत्ररूपाणामे कोनविंशत्संख्यानामावलिकात्रिकोना नकृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या वेदितव्या. आवलिकात्रिकं च बंधावलि. कासंक्रमावलिकोदयावलिकारूपमवगंतव्यं, सर्वत्रापि च यावता कालेन न्यूनत्वं तावान अझाबेदः, नदयवंतस्तूदीरणास्वामिनः ॥ ५॥ ॥ मूलम् ॥ हयसेसातिबठिई । पल्लासंखेजमेत्तिया जाया ॥ तीसे सयोगिपढमे । समये नदीरणुकोसा ॥ ५१ ॥ व्याख्या-इह पूर्व तीर्थकरनाम्नः स्थितिः शुरध्यवसायैरपवल्पवर्त्य पद्ध्योपमासंख्येयत्नागमात्रा शेषीकृता. तस्या एतावन्मात्राया हतशेषायाः स्थितेः सयोगिकेवलिनः प्रश्रमे समये या नदीरणा सा नत्कृष्टा नदोरणा. यतः सर्वदैवोत्कर्षतो ऽपि इयन्मात्रैव स्थितिरुत्कृष्टा तीर्थकरनाम्न नदीरणाप्रायोग्या प्राप्यते, नाधिकेति, आयुषां 3 तु चतुर्णामपि स्वस्वोत्कृष्टस्थितिबंधादूर्ध्वमुदयप्रश्रमसमये नत्कृष्टा स्थित्युदीरणा. तदेवमुक्त मुत्कृष्टस्थित्युदीरणास्वामित्वं ॥ ५१ ॥ संप्रति जघन्यस्थित्युदीरणास्वामित्वमाह ॥१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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