Book Title: Panchsangraha Tika Part_4
Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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नाग :
पंचसं ॥ मूलम् ।।-नयकुलायवुऊोय । सव्वघाई कसायनिदाणं ॥ अश्हीणसंतबंधो । ज-
___ हननदीरगो अतसो ।। ५२ ॥ व्याख्या-अत्रसस्त्रसविपकः स्थावरः, जयजुगुप्सातपोद्योताटीका
बन नां, सर्वघातिनां च कषायाणां श्राद्यवादशानां निज्ञपंचकस्य च, सर्वसंख्यया एकविंशतिप्र. १०॥ कृतीनामतिजघन्यस्थितिसत्कर्मा अतिजघन्यालिनवकर्मबंधश्च सत्कर्मा पेक्षया समं मनाक्
अधिकं वा अन्निनवकर्म बध्ननित्यर्थः, जघन्योदीरको जवति. बंधावलिकायामतीतायां जघन्यां स्थितिमुदीरयतीत्यर्थः हातपोद्योतवर्जानामेकोनविंशतिप्रकृतीनां ध्रुवबंधित्वात, आत. पोद्योतयोस्तु प्रतिपदानावात् अन्यत्र जघन्यतरा स्थिति प्राप्यते. इति स्थावर एवोक्तस्व. रूप आसां प्रकृतीनां जघन्यस्थित्युदीरणास्वामी. ॥ ५ ॥
॥ मूलम् ।।-एगिंदियजोगाणं । पमिवरका बंधिळण तवेई ॥ बंधालिचरमसमए । त. दागए लेसजाईणं ॥ ५३॥ व्याख्या-एकेंशियाणामेवोदीरणांप्रति या योग्याः प्रकृतयस्ता एकेंश्यियोग्याः, एकेंश्यिजातिस्थावरसूदमसाधारणनामानः, तासामेकेडियो जघन्यस्थिति सत्कर्मा प्रतिपक्षाः प्रकृतीबध्वा तत्र एकेंश्यिजातहित्रिचतुःपंचेंश्यिजातीः स्थावरसूक्ष्म
॥१०
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