Book Title: Panchastikaya
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 31
________________ पंचास्तिकाय होंगे और जिसके हृदयमें मोह, द्वेष, अप्रशस्त राग तथा चित्तका अनुत्साह होगा उससे अशुभ परिणाम होंगे।।१३१ ।। पुण्य और पापका लक्षण सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावंति हवदि जीवस्स। दोण्हं पोग्गलमेत्तो, भावो कम्मत्तणं पत्तो।।१३२।। जीवका शुभ परिणाम पुण्य कहलाता है और अशुभ परिणाम पाप। इन दोनों ही परिणामों से कार्मणवर्गणारूप पुद्गल द्रव्य कर्म अवस्थाको प्राप्त होता है।।१३२ ।। कर्म मूर्तिक हैं जम्हा कम्मस्स फलं, विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं। जीवेण सुहं दुक्खं, तम्हा कम्माणि मुत्ताणि।।१३३।। चूँकि कर्मोंके फलभूत सुख-दुःखादिके कारणरूप विषयोंका उपभोग स्पर्शनादि मूर्त इंद्रियोंके द्वारा होता है अतः कर्म मूर्त हैं।।१३३ ।। पूर्व मूर्त कर्मोंके साथ नवीन मूर्त कर्मोंका बंध होता है मुत्तो फासदि मुत्तं, मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि। जीवो मुत्तिविरहिदो, गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।।१३४।। इस संसारी जीवके अनादि परंपरासे आये हुए मूर्त कर्म विद्यमान हैं। वे मूर्त कर्मही आगामी मूर्त कर्मका स्पर्श करते हैं। अतः मूर्त द्रव्य ही मूर्त द्रव्यके साथ बंधको प्राप्त होता है। जीव मूर्तिरहित है-- अमूर्त है, अतः यथार्थमें उसका कर्मों के साथ संबंध नहीं होता। परंतु मूर्त कर्मोंके साथ संबंध होनेके कारण व्यवहार नयसे जीव मूर्तिक कहा जाता है। अतः वह रागादि परिणामोंसे स्निग्ध होनेके कारण मूर्त कर्मोंके साथ संबंधको प्राप्त होता है और कर्म जीवके साथ संबंधको प्राप्त होते हैं।।१३४ ।। पुण्यकर्मका आस्रव किसके होता है? रागो जस्स पसत्थो, अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्ते णत्थि कलुस्सं, पुण्णं जीवस्स आसवदि।।१३५ ।। जिस जीवका राग प्रशस्त है, परिणाम दयासे युक्त हैं और हृदय कलुषतासे रहित है उसके पुण्यकर्मका आस्रव होता है।।१३५ ।। प्रशस्त रागका लक्षण अरहंतसिद्धसाहुसु, भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अणुगमणं पि गुरूणं, पसत्थरागो त्ति वुच्चंति।।१३६ ।।

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