Book Title: Panchastikaya
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 34
________________ ३६ कुन्दकुन्द - भारती कर्मोंका ग्रहण योगोंके निमित्तसे होता है, योग मन वचन काय के व्यापारसे होते हैं, बंध भावोंके निमित्तसे होता है और भाव रति राग द्वेष तथा मोहसे युक्त होते हैं । [ मन वचन और कायके व्यापार से आत्माके प्रदेशोंमें जो परिष्पंद पैदा होता है उसे योग कहते हैं, इस योगके निमित्तसे ही कर्मोंका ग्रहण आस्रव होता है। रति राग द्वेष मोहसे युक्त आत्माके परिणामको भाव कहते हैं, कर्मोंका बंध इसी भावके निमित्तसे होता है । ] । । १४८ ।। कर्मबंधके चार प्रत्यय कारण हेदू चदुव्वियप्पो, अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं । सिं पिय रागादी, तेसिमभावे ण बज्झति । । १४९ ।। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार प्रकारके प्रत्यय ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके कारण कहे गये हैं। उन मिथ्यात्व आदिका कारण रागादि विभाव हैं। जब इनका भी अभाव हो जाता है तब कर्मोंका बंध रुक जाता है । । १४९ ।। -- -- आस्रवनिरोध -- संवरका वर्णन 'हेदुमभावे णियमा, जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो । आसवभावेण विणा, जायदि कम्मस्स दु णिरोधो । । १५० ।। कम्मस्साभावेण य, सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य । पावदि इंदियरहिदं, अव्वाबाहं सुहमणंतं । । १५१ । । जुम्मं रागादि हेतुओंका अभाव होनेपर ज्ञानी जीवके नियमसे आस्रवका निरोध हो जाता है, आस्रवके न होनेसे कर्मोंका निरोध हो जाता है और कर्मोंका निरोध होनेसे यह जीव सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बनकर १. 'हेदु अभावे' इति ज. वृ. सम्मतः पाठः । अतींद्रिय, अव्याबाध और अनंत सुखको प्राप्त हो जाता है । । १५० - १५१ । । ध्यान निर्जराका कारण है दंसणणाणसमग्गं, झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं । जायदि णिज्जरहेदू, सभावसहिदस्स साधुस्स । । १५२ ।। ज्ञान और दर्शनसे संपन्न तथा अन्य द्रव्योंके संयोगसे रहित ध्यान स्वभावसहित साधुके निर्जराका कारण होता है । । १५२ ।।

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