Book Title: Panchastikaya
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 38
________________ कुन्दकुन्द - भारती शुद्धात्मस्वरूपके सिवाय अन्यत्र विषयोंमें चित्तका भ्रमण संवरका बाधक है धरिदुं जस्स ण सक्कं, चित्तुब्भामं विणा दु अप्पाणं । रोधो तस्स ण विज्झदि, सुहासुहकदस्स कम्मस्स । । १६८ ।। शुद्ध आत्मस्वरूपके सिवाय अन्य विषयोंमें होनेवाला जिसका चित्तसंचार नहीं रोका जा सकता हो उसके शुभ-अशुभ भावोंसे किये हुए कर्मोंका संवर नहीं हो सकता है। । १६८ ।। तम्हा णिव्वुदिकामो, णिस्संगो णिम्ममो य हविय पुणो । सिद्धे कुणदि भत्तिं, णिव्वाणं तेण पप्पोदि । । १६९ ।। इसलिए मोक्षाभिलाषी पुरुष निष्परिग्रह और निर्ममत्व होकर परमात्म स्वरूपमें भक्ति करता है और उससे मोक्षको भी प्राप्त होता है । । १६९ ।। भक्तिरूप शुभराग मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण नहीं है सपयत्थं तित्थयरं, अभिगतबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । ४० दूरतरं णिव्वाणं, संजमतवसंपओत्तस्स ।। १७० ।। जीव- अजीव आदि नव पदार्थों तथा तीर्थंकर आदि पूज्य पुरुषोंमें जिसकी भक्तिरूप बुद्धि लग रही है उसको मोक्ष बहुत दूर है, भले ही वह आगमका श्रद्धानी और संयम तथा तपश्चरणसे युक्त क्यों न हो । । १७० ।। अरहंतसिद्धचेदिय, पवयणभत्तो परेण णियमेण । दिवो कम्मं, सो सुरलोगं समादियादि । । १७१ । । जो अरहंत, सिद्ध, जिनप्रतिमा और जिनशास्त्रोंका भक्त होता हुआ उत्कृष्ट संयमके साथ तपश्चरण करता है वह नियमसे देवगति ही प्राप्त करता है । । १७१ ।। वीतराग आत्मा ही संसारसागरसे पार होता है तम्हा णिव्वुदिकामो, रागं सव्वत्थ कुणदि मा किंचि । सोते वीरागो, भवियो भवसायरं तरदि । ।१७२ ।। इसलिए मोक्षका इच्छुक भव्य किसी भी बाह्य पदार्थमें कुछ भी राग नहीं करे, क्योंकि ऐसा करनेसे ही वह वीतराग होता हुआ संसारसमुद्रसे तर सकता है ।। १७२ ।। समारोप वाक्य मग्गप्पभावणट्टं, पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं, पंचत्थियसंग सुत्तं । । १७३ ।।

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