Book Title: Panchastikaya
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 35
________________ पंचास्तिकाय ३७ मोक्षका कारण जो संवरेण जुत्तो, णिज्जरमाणोघ' सव्वकम्माणि। ववगदवेदाउस्सो, मुयदि भवं तेण सो मोक्खो।।१५३।। जो जीव संवरसे युक्त होता हुआ समस्त कर्मोंकी निर्जरा करता है और वेदनीय तथा आयुकर्मको नष्ट कर नामगोत्ररूप संसार अथवा वर्तमान पर्यायका भी परित्याग करता है उसके मोक्ष होता है।।१५३।। इसप्रकार मोक्षके अवयवभूत सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयभूत नौ पदार्थोंका व्याख्यान करनेवाला द्वितीय महाधिकार समाप्त हुआ। *** ज्ञान, दर्शन और चारित्रका स्वरूप जीवसहावं णाणं, अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं। चरियं च तेसु णियदं, अत्थित्तमणिंदियं भणियं ।।१५४ ।। ज्ञान और अखंडित दर्शन ये दोनों जीवके अपृथग्भूत स्वभाव हैं। इन दोनोंका जो निश्चल और निर्मल अस्तित्व है वही चारित्र कहलाता है।।१५४ ।। ___ जीवके स्वसमय और परसमय की अपेक्षा भेद जीवो सहावणियदो, अणियदगुणपज्जओघ परसमओ। जदि कुणदि सगं समयं, पब्भस्सदि कम्मबंधादो।।१५५ ।। यद्यपि यह जीव निश्चयनयसे स्वभावमें नियत है तथापि परद्रव्योंके गुण पर्यायोंमें रत होनेके कारण परसमयरूप हो रहा है। जब यह जीव स्वसमयको करता है -- परद्रव्यसे हटकर स्वस्वरूपमें रत होता है तब कर्मबंधनसे रहित होता है।।१५५ ।। परसमयका लक्षण जो परदव्वम्मि सुहं, असुहं रागेण कुणदि जदि भावं। सो सगचरित्तभट्टो, परचरियचरो हवदि जीवो।।१५६।। जो जीव रागसे परद्रव्यमें शुभ अथवा अशुभ भाव करता है वह स्वचरित्रसे भ्रष्ट होकर परचरित २. 'णिज्जरमाणो य' ३. 'मुअदि' इति ज. वृ. संमतः पाठः। ३. 'पज्जओ य' ज. वृ।

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