Book Title: Panchastikay Padyanuwada evam Tirthankar Stavan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 3
________________ जन्मे-मरे नित द्रव्य ही पर नाश-उद्भव न लहे। सुर-मनुज पर्यय की अपेक्षा नाश-उद्भव हैं कहे ।।१८ ।। इस भाँति सत् का व्यय नहिं अर असत् का उत्पाद नहिं। गति नाम नामक कर्म से सुर-नर-नरक - ये नाम हैं।।१९।। जीव से अनुबद्ध ज्ञानावरण आदिक भाव जो। उनका अशेष अभाव करके जीव होते सिद्ध हैं ।।२०।। भाव और अभाव भावाभाव अभावभाव में । यह जीव गणपर्यय सहित संसरण करता इसतरह ।।२१।। जीव-पुद्गल धरम-अधरम गगन अस्तिकाय सब। अस्तित्वमय हैं अकृत कारणभूत हैं इस लोक के ।।२२।। कर्म मल से मुक्त आतम मुक्ति कन्या को वरे। सर्वज्ञता समदर्शिता सह अनन्तसुख अनुभव करे।।२८ ।। आतम स्वयं सर्वज्ञ-समदर्शित्व की प्राप्ति करे। अर स्वयं अव्याबाध एवं अतीन्द्रिय सुख अनुभवे ।।२९ ।। श्वास आयु इन्द्रिबलमय प्राण से जीवित रहे। त्रय लोक में जो जीव वे ही जीव संसारी कहे ।।३०।। अगुरुलघुक स्वभाव से जिय अनन्त गुण मय परिणमें। जिय के प्रदेश असंख्य पर जिय लोकव्यापी एक है ।।३१।। बन्धादि विरहित सिद्ध आस्रव आदि युत संसारि सब। संसार भी होते कभी कुछ व्याप्त पूरे लोक में ।।३२।। सत्तास्वभावी जीव पुद्गल द्रव्य के परिणमन से । है सिद्धि जिसकी काल वह कहा जिनवरदेव ने ।।२३।। रस-वर्ण पंचरु फरस अठ अर गंध दो से रहित है। अगुरुलघुक अमूर्त युत अरु काल वर्तन हेतु है ।।२४।। समय-निमिष-कला-घड़ी दिनरात-मास-ऋतु-अयन। वर्षादि का व्यवहार जो वह पराश्रित जिनवर कहा ।।२५ ।। विलम्ब अथवा शीघ्रता का ज्ञान होता माप से। माप होता पुद्गलाश्रित काल अन्याश्रित कहा ।।२६ ।। आत्मा है जीव-देह प्रमाण चित्-उपयोगमय । अमूर्त कर्ता-भोक्ता प्रभु कर्म से संयुक्त है ।।२७ ।। अलप या बहु क्षीर में ज्यों पद्ममणि आकृति गहे। त्यों लघु-गुरु इस देह में ये जीव आकृतियाँ धरें ।।३३।। दूध-जल वत एक जिय-तन कभी भी ना एक हों। अध्यवसान विभाव से जिय मलिन हो जग में भ्रमें ।।३४।। जीवित नहीं जड़ प्राण से पर चेतना से जीव हैं। जो वचन गोचर हैं नहीं वे देह विरहित सिद्ध हैं ।।३५।। अन्य से उत्पाद नहिं इसलिए सिद्ध न कार्य हैं। होते नहीं हैं कार्य उनसे अतः कारण भी नहीं ।।३६।। सद्भाव हो न मुक्ति में तो ध्रुव-अध्रुवता ना घटे। विज्ञान का सद्भाव अर अज्ञान असत कैसे बनें? ।।३७।। (१२)

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