Book Title: Padmacharitam Part 01 Author(s): Ravishenacharya, Darbarilal Nyayatirth Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti View full book textPage 6
________________ जेहिं कर रमणिजे वरंग-पउमाणचरितवित्थारे। कहव ण सलाहणिजे ते कइणो जइय रविसेणो ॥ अर्थात् जिसने रमणीय वरांगचरित और पद्मचरितका विस्तार किया उस कवि रविषेणकी कौन सराहणा नहीं करेगा? अभी तक इनके वरांगचरितका किसी भी पुस्तकभंडारमें पता नहीं लगा है। पद्मपुराणका हिन्दी अनुवाद (वचनिका) अब तक चार पाँच बार छप चुका है; परन्तु मूल ग्रन्थ एक बार भी नहीं छपा है जिससे विद्वानोंको प्रमाणादि संग्रह करनेमें बहुत कष्ट होता है । यह देखकर हमने इसे ग्रन्थमालामें प्रकाशित कर के सबके लिए सुलभ कर देना उचित समझा। लगभग ५०० पृष्ठोंका यह प्रथम खण्ड प्रकाशित हो रहा है। शेष ग्रन्थ लगभग इतने ही बड़े दो खण्डोंमें समाप्त होगा। सम्पूर्ण ग्रन्थका मूल्य लगभग पाँच रुपया होगा। हमें आशा है कि जैनसाहित्यप्रेमी सज्जन इसके प्रचारमें हमारा हाथ अवश्य बँटावेंगे जिससे इसमें लगा हुआ रुपया शीघ्र उठ आवे और वह दूसरे ग्रन्थोंके उद्धारमें लगने लगे। यह बतलानेकी आवश्यकता नहीं कि इस कार्य में लगभग पाँच हजार रुपया लग जावेगा और ग्रन्थमाला के फण्डमें जो रुपया है वह प्रायः सभी निःशेष हो जावेगा। प्रत्येक मन्दिरके भंडार में इसकी एक एक प्रति मँगा रखनी चाहिए। ग्रन्थ समाप्त हो जाने पर हमारा विचार है कि किसी विद्वानसे इसकी एक विस्तृत ऐतिहासिक भूमिका लिखवाई जाय। इसके लिए प्रयत्न किया जा रहा है। एक वर्ष भरके भीतर प्रन्थके शेष दोनों खण्ड निकल जायँगे, ऐसी आशा की जाती है । १३-५-२८ -नाथूराम प्रेमी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 522