Book Title: Padmacharitam Part 01 Author(s): Ravishenacharya, Darbarilal Nyayatirth Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti View full book textPage 5
________________ रविषेणाचार्यने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है __ आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्यचाहन्मुनिः तस्मॉल्लक्ष्मणसेनसन्मनिरदः शिष्यो रविस्तस्मृतं ॥ ६९॥ अर्थात् इन्द्रगुरु-दिवाकरयति-अर्हन्मुनि-लक्ष्मणसेन और रविषेण । इन्होंने अपने किसी संघ या गणका उल्लेख नहीं किया है जिससे मालूम होता है कि उस समय तक दिगम्बर सम्प्रदायमें देव, नन्दि, सेन, सिंह संघोंकी उत्पत्ति नहीं हुई थी; कमसे कम ये भेद बहुत स्पष्ट नहीं हुए थे। शक संवत् १३५५ के लिखे हुए मंगराज कविके शिलालेख में इस बातका उल्लेख किया गया है कि भट्टाकलंकदेवके स्वर्गवासके बाद यह संघभेद हुआ। तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षी दिव-पतिं नर्तुमिवप्रकृष्टां ।। तदन्वयोद्भूतमुनीश्वराणां बभूवुरित्थं भुवि संघभेदाः ॥ १९ ॥ आचार्य रविषेणका यद्यपि इस समय केवल यही ग्रन्थ उपलब्ध है; परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि इसके सिवाय उनके और भी कुछ ग्रन्थ होगे जिनमेंसे वरांगचरितका उल्लेख हरिवंशपुराणके प्रारंभमें इस प्रकार किया गया है: वरांगनेव सर्वांगैर्वरांगचरितार्थवाक् । कस्यनोत्पादयेगाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥ ३५॥ . श्वेताम्बर-सम्प्रदायके आचार्य उद्योतनसूरिने अपने ' कुवलयमाला' नामक प्राकृत ग्रन्थमें भी जो शकसंवत् ७... (वि० सं० ८३५) की रचना है रविषेणके पद्मचरित और वरांगचरितका उल्लेख किया है: * यह विस्तृत शिलालेख जैनसिद्धान्तभास्करके अंक २-३ में प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 522