Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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________________ अवतरणसूचिः 87 141 मृद्दण्डचक्रसूत्रादि घटो [ ] 196 / लौकिकपरीक्षकाणाम् न्यायसू०१।१०२५] 312 यः पश्यत्यात्मानं [प्रमाणवा० 11219] 838 | वचनविघातोऽर्थविकल्पो-न्यायसू० 122 // 10] 321 यः पूर्वावगतोंऽशोत्र मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० वटे वटे वैश्रवणः [ ] 728, 733 233] 698 वरं वृन्दावने रम्ये [ ]828 य एव लौकिकाः शब्दाः [शाबरभा० 1 // 3 // 30] 593, | वर्णक्रमनिर्देशवत् न्यायसू० 5 / 2 / 8] 332 720 वस्तुत्वाद् द्विविधस्यात्र [मी० श्लो सू०२ श्लो. यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः [मनु० 5 / 39] 634 यत्ये तदादि गुः [जैनेन्द्रव्या० 112 / 114] 766 वस्त्वसंकरसिद्धिश्च मी० श्लो० अभाव० श्लो० यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः वाक्यप० 1134] 68 2] 467 यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य [ ]27, 66, वाग्रूपता चेदुत्क्रामेद् वाक्यप० 11125] 140 206 वायुत्वाभिसम्बन्धात् प्रश० भा० 1044] 214 यत्सिद्धी अन्यप्रकरण- न्यायसू० 111130] 313 | विकल्पयोनयः शब्दा ] 537 यथा घटादेर्दीपादिरभि- [मी० श्लो० शब्दनि० विकहा तहा कसाया पिंचसं०१ 15] 874 श्लो० 42] 714 विजातीयानामनारम्भ- [ ] 268 यथानुवाकः श्लोको वा [वाक्यप० 1183 ] 749, | विज्ञातस्य परिषदा न्यायसू० 5 / 2 / 16] 333 755 विधेर्लक्षणमेतावदप्रवृत्त- [ ] 573, यथा माया यथा स्वप्नो [ माध्यमिक० संस्कृतप०का० विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिप्रकारस्य [ ] 339 34] 132 विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च न्यायसू० 102 / 19] 329 यथा विशुद्धमाकाशम् [बृहदा० भा० वा० 3 / 5 / 43] | विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्या- न्यायसू० 131141] 316. यथैव प्रथमं ज्ञानम् [ ] 196 विशिष्टसाधनाव्यवच्छिन्न- [विधिवि० पृ० 246] यथैवाऽऽहारकालादेः [प्रमाणवा० 3 / 3 / 69] 166 यथोक्तोपपन्नः छलजाति-न्यायसू० 1 / 2 / 2] 318, विशेषेऽनुगमाऽभावात् ] 69 338 | विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् / ] 567 यद् यत्र उपलब्धिलक्षण 1 484 | वेदाध्ययनं सर्वं मी० श्लो० वाक्याधि० श्लो. यदा दृष्ट्वा परं ब्रह्म / 831 366] 722 यदेवार्थक्रियाकारि [ ] 382, 396 | व्यक्तिनित्यत्वमापन्नं मी० श्लो० शब्दनि० यद्वाऽनु वृत्तिव्यावृत्ति-मी० श्लो० अभाव० इलो०६] श्लो० 273] 703 467 व्यावृत्त्योलिङ्गलिङ्गित्वम् न्यायमं०१०११७] 448 यद्विज्ञानं स्वविषये [ ] 673 | शक्तिः करणं कार्यम् यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते न्यायसू० श१०२४] 312 | शब्दवृद्धाभिधेयानि [मी० श्लो० सम्बन्ध० 140] यस्मात् प्रकरणचिन्ता न्यायसू० 1 / 2 / 27] 319 यस्य गुणस्य हि भावात् पात० महाभा० 5.11119) शब्दब्रह्मणि निष्णातः [ब्रह्मबिन्दूप० 22] 139 275 शब्दार्थयोः पुनर्वचनं न्यायसू०.५।२।१४] 333 युगपज्ज्ञानाऽनुत्पत्तिर्मन- न्यायसू० 11116] 185 शब्दे दोषोद्भवस्तावद् मी० श्लो० चोदना० युज्यते नाशिपक्षे च [मी० श्लो० अभाव० श्लो० श्लो०६३] 723 241] 702 शब्दे वाचकसामर्थ्यम् [मी० श्लो० शब्दनि० श्लो ये तु प्रत्यक्षतो विश्वं 238] 702 यो धर्मशील: 1 729 | शब्दे वाचकसामर्थ्यात् [मा० श्लो० अर्था० श्लोक यो ब्रह्माणं विदधाति श्वेताश्व० 6 / 18 726 5] 508 रसो रसनेन्द्रियग्राह्यः [प्रश० भा०पू०१०५] 273 | शब्दोत्पत्तेनिषिद्धत्वात् [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः तत्वार्थसू० 5 / 23) 787 __226] 711 रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्या [वैशे० सं० 2116] 273 शिरशोऽवयवा निम्ना [मो०श्लोअभाव०श्लो० 4) रूपश्लेषो हि सम्बन्धः सम्बन्धपरी०(?)] 306 468 रूपादिमयी मत्तिः श्रुतमविस्पष्टतर्कणम् [तत्त्वार्थश्लो० पृ० 237 ] लक्षणहेत्वोः क्रियायाः [जैनेन्द्रव्या० 2 / 2 / 104] 449 404 लिङ लोट्तव्यप्रत्यय- [. श्रूयन्ते हि अनन्ता: [तत्त्वार्थभा०सम्बन्धका०२७] लोयायासपदेसे द्रव्यसं० गा० 22, जीवकां० गा० | 868 588 (?)]| श्वेतमजमालभेत

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