Book Title: Nitikavya ke Vikas me Hindi Jainmuktak Kavya ki Bhumika Author(s): Gangaram Garg Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 6
________________ CB परनारी परतषि, सील गुन भांजे छिन में । देवीदास ने कामाग्नि को शीलरूपी वृक्ष को परनारी परतषि, जानि षोटी अति मन में। भस्म करने वाली बतलाकर व कामान्ध व्यक्ति को एह जानि भवि पर नारि को, नीच, महादूःख का भोगी, अपने लक्ष्य में सर्वथा तजो सील गुन धारि के। असफल होने वाला व्यक्ति प्रतिपादित कर उसकी 'लषमी' कहत रावन गये, कटु शब्दों में भर्त्सना की हैनरक भूमि निहारि कै। काम अंध सो पुरिष, सस्य करि सके न कारज । काम अंघ सो पुरिष, तासु परिणाम न आरज। कषाय-जन आचार परम्परा में काम, क्रोध, काम अंध सह क्रिया मिले. इक रंच न कोई। | मोह और मान चार कषाय माने गये हैं, जिनका . काम अंध से अधम नहीं, जग में जन सोई। ( त्याग श्रावक को आवश्यक माना है। नीतिकारी गति नीच महा दूष भोगवत, ने कषाय का विवेचन इस प्रकार किया है। सो सब काम कलंक फल । ___द्यानतराय ने वृद्धावस्था की दुर्दशा का चित्रण सो कामानल करि कै दहत, SH करते हुए लोभ द्वारा नियन्त्रित रहने की भर्त्सना परम सील तरुवर सबल ।। प्रेरणाप्रद स्वरों में की है क्रोध होने की स्थिति में व्यक्ति को नीति-अनीति कि भूख गई घटि, कूख गई लटि, सूख गई कटि खाट पर्यो है । ., का ज्ञान तो रहता ही नहीं, वह आत्म-पीड़ित भी ( बैन चलाचल नैन टलावल होता है। बुधजन का मत हैचैन नहीं पल व्याधि भरयो है। नीति अनीति लखै नहीं, लखै न आप बिगार । अंग उपांग थके सरवंग प्रसंग किए पर जारै आपन जरै, क्रोध अगनि की झार ।६७२। ___जन नाक सर्यो है। काम, क्रोध, लोभ या मोह के अतिरिक्त चौथे । 'द्यानत' मोह मरित्र विचित्र, गई सब सोभ कषाय अभिमान की निन्दा उसकी निरर्थकता के न लोभ हट्यो है ।३६ सर्क से प्रतिपादित की है। संसार में सहज गति से -धर्मरहस्य बावनी होने वाले निर्माण एवं विमाश के कार्यों में व्यक्ति घद्धावस्था में भी काम-वासना की निरन्तरता स्वयं को कर्ता मान लेता है। यह एक भ्रम मात्र है। बने रहने की स्थिति बुधजन को पीडित करती । हेमराज गोदीका का कथन हैहै । तभी वे कामासक्त मनुष्य को प्रतारणा देते होत सहज उत्पात जग, बिमसत सहज सुभाइ । हुए कहते हैं मूढ़ अहंमति धारि के, जनमि जनमि भरमाइ ।३।। तो जोबन में भामिनि के संग, तृष्णा-किसी वस्तु को हर स्थिति में प्राप्त निसदिन भोग रचावै। करने की सामान्य इच्छा लोभ और तीव्रतम इच्छा अंधा है धन्धे दिन सोदै, तृष्णा कही जा सकती है। अन्य प्राणियों की बूड़ा नाडि हलावै। अपेक्षा प्रकृति की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने के जम पकर तब जोर न घाले, बाद भी मनुष्य किसी अप्राप्य वस्तु के लिए चिंतित सैन बतावै। रहसा है तथा उसको प्राप्त करने की अमर्यादित मंद कषाय हूवै तो भाई, मेष्टा करता है। एक अज्ञात कलि ने अपने ३२ दोहों . भुवन त्रिक पद पावै ।। में से एक दोहे में थामा या तृष्णा की स्थिति को -षड पाठ पराधीनता-सूलक कहा है पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 50 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ esto) Jain Education International Ear Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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