Book Title: Nitikavya ke Vikas me Hindi Jainmuktak Kavya ki Bhumika Author(s): Gangaram Garg Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 5
________________ शील को तप और 'वैराग्य' के समकक्ष महत्व दिया परधन चोरी अर वेश्या को त्याग करी परनारी। _'सूरति' इस भव में सुख पावे, परभव सुख अधिस सा सील सरीसो तप नहीं सील बड़ो वैराग । कारी ॥२६॥ सील सरपन बावड़े, सीला सीतल आग । विनोदीलाल ने सप्त व्यसनों में रत व्यक्ति को क्षत्रशेष शील को विघ्नविनाशक, दुःखहर्ता नरक में जाने का भय दिखाया हैतथा पूर्व कर्मबंधों को विघटित करने वाला मानते हिंसा के करैया, मुख झूठ के बुलैया, हैं। शील ही यश और सुख का दाता है। अन्य परधन के हरैया, करुणा न जाकै हीये हैं। 4 गुणों का समूह तो शील के पालन होने पर स्वतः ही हृदय में बस जाता है सहत के खवईया, मदपान के करइया, कन्द मूल के षवइया, अरु कठोर अति हीये हैं। सील ते सकल गुन आप हिय वास करें, सील तें सुजस तिहु जग प्रघटत है। सील के गमइया, झूठी साखि के करइया, सील ते विघन ओघ रोग सोग दूर होय, __महा नरक के जवइया जिन और पाप कीए हैं। सील तें प्रबल दोस दुष विघटत है। नीतिकार लक्ष्मीचन्द ने सातों व्यसनों को * सील तें सुहाग भाग दिन दिन उदै होय, त्यागने की शिक्षा उपदेशात्मक शैली में श्रावक को पूरब करम बंध दिननि घटत है। इस प्रकार दी हैसील तें सुहित सुचि दीसत न आंनि जग, जूवा मति षेलो जानि, मांस अति षोटो मांनि, सील सब सुष मूल वेद यों रटत है। मद सब तजि अर वेश्यां तजि नर तू निषेधात्मक आचार नीति आखेट न कीज्यो मुक्ति चोरी न करो । मनुष्य को जिन मनोवृत्तियों और दुर्गुणों से भूल पर बनिता तजि हित निज नारी करिजू । - दूर रहने को कहा जाता है, उन्हें निषेधात्मक मूल्य कहा जा सकता है। जैन मुक्तकों में ये मूल्य इस ऐहि सात विसन जांनि, त्यागि भव उर आंनि। प्रकार हैं कहै जिनवानी में पोटे चित धरि जू ।।२४॥ ||5 सप्त व्यसन-अधिकांश जैन नीतिकारों ने रीति- सामन्तों की विलासप्रियता को बढ़ाने वाले 12 काल के प्रमुख दुर्गुण द्य तक्रीड़ा, मद्यपान, मांस- अर्थलोलुप दरबारी कवियों को परकीया-प्रेम के भक्षण, पर-नारीगमन, शिकार, स्तेय और वेश्या- अमर्यादित आकर्षक चित्र खींचने में कोई संकोच गमन आदि दुर्गुणों की कई स्थानों पर तीव्र नहीं रहा था, उनका आचरण भारतीय आचार-700 1 भर्त्सना की है। बारहखड़ी के रचयिता जैन कवि विचार के बड़ा प्रतिकूल था। जैन कवियों को | * सूरति सप्तव्यसन के त्याग को ही सुख पाने का इससे बड़ी खीझ रही । अतः उन्होंने उग्र स्वरों में | आधार बतलाते हैं परकीया-प्रेम की भर्त्सना की । लक्ष्मीचन्द परनारी बबा विसन कुविसन है, विसन सात तू त्यागि। को विष की झाल और अग्निदाह की संज्ञा देकर बसि करि पाँचों इंद्रीनि कौं सुभ कारिज कौं लागि उसकी भयानकता इस प्रकार प्रकट करते हैंशुभ कारज को लाग करि विसन सात ये भारी। परनारी परतषि जानि अति विष की झाला। जूवां आमिस, सुरापान, मधु षेटक नाम बिसारी। परनारी परतषि मान, तुव अगनि विसाला । | पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ४०७ - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jam Education International or Private & Personal Use Only w.jacobrary.orgPage Navigation
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