Book Title: Nitikavya ke Vikas me Hindi Jainmuktak Kavya ki Bhumika
Author(s): Gangaram Garg
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 4
________________ टेकचन्द के विचार से बिना समझकर बोलने गुन हीये करै जु धाय, ओगुन नहि चितलाय । मधुर बैन बोले, सुमारिंग को लेत जूं | २२ समतावान व्यक्ति क्रोधी व्यक्ति को भी शान्त कर देता है से अपयश का भागी बनना होता हैवचन बोलिये समझ के द्रव्य क्षेत्तर जोइ । बिन समझे बोलति है, अपजस लेह सोइ |२७| महाकवि बुधजन ने जिह्वा पर नियंत्रण रखकर अधिक खाने के अतिरिक्त अधिक बोलने की मनाही भी की है रसना राखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलतें, निहच हो है हांन ॥ २१७ अवसरोचित व्यवहार -- मनुष्य एक सामाजिक एवं बुद्धिसम्पन्न प्राणी है । अतः उसमें अवसरानुकूल व्यवहार की चतुराई जैन नीतिकारों ने भी आवश्यक मानी है । प्रकृति के सभी कार्य यथावसर सम्पन्न होते हैं इसलिए कवि 'गद' मनुष्य को अवसर न चूकने का उपदेश देते हैं- अवसरि घनहर गुड़, फूल पणि अवसरि फूलै । अवसरि बालित बल गहर, निसाण गहीलै । अवसरि बरसे मेह, गीत पणि अवसर गावै । अवसर चूकै मूढ़ तकै, पाछे पिछतावे । अवसरि सिंगार कांमणि करै, अवसर भ्रात परखिये । कवि 'गद' कहै सुण राय हो, सो अवसर कबहु न चूकिये । बुधजन बोलने और मौन रहने के लिए भी अवसर का ध्यान रखना अपेक्षित समझते हैं-ओसर लखि के बोलिये, जथा जोगता बैन । सावन भादों बरस तैं, सबही पावै चैन । ११६ | बोल उठे औसर बिना, ताका रहै न मान । जैसे कातिक बरस तें निन्दै सकल जहांन | ११७ | समता - निन्दा अथवा स्तुति, द्वेष और राग को बढ़ाती है, अतः नीतिकारों ने समता भाव धारण करने पर बल दिया है समता भाव से व्यक्ति की वाणी सहज ही मधुर हो जाती हैनिंदा न करें काहू, औगुन परिगुन जाइ । संवर मन करि कैं, समता रस धारि जू |२१| ४०६ Jain Education International अति शीतल मृदु वचन तें, क्रोधानल बुझ जाय । ज्यूँ उफणतें दूध कू, पानी देत समाय ॥१६॥ - ज्ञानसार कृत प्रस्तावित अष्टोत्तरी । महाकवि द्यानतराय समतावान् से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह शत्रु का भी सम्मान करेथावर जंगम मित्र रिपु, देखे आप समान । राग विरोध करें नहीं, सोई समतावान । - तत्त्वसार भाषा, छंद ३८ निज शत्रु जो घर माँहि आवै, मान ताको कीजिए । अति ऊँच आसन मधुर वानी, बोलिकै जस लीजिए । -दान बावनी छंद २७ दया— कविवर विनोदीलाल ने अपनी रचना 'नवकार मंत्र महिमा' में सभी उपासना पद्धतियों में श्रेष्ठ व उत्तम साधना कहकर 'दया' को सर्वाधिक महत्व दिया हैद्वारिका के न्हाये कहा, अंग के दगाये कहा, संख के बजाये कहा राम पाइतु है । जटा के बढ़ाये कहा, भसम के चढ़ाये कहा, धूनी के लगाये कहा सिव ध्यायतु है । कान के फराये कहा, गोरष के ध्याये कहा, सींग के सुनाये कहा सिद्ध ल्याइतु है । दया धर्म जाने आपा पहिचाने बिनु, कहै 'विनोदी' कहूँ मोष पाइतु है । ३३ । मर्यादा -रक्षण - अपने कर्त्तव्य अथवा लक्ष्य की पूर्ति में जुटे रहने व उसमें सर्वस्व होम देने का संकेत सभी नीतिकारों ने दिया है। सतसईकार बुधजन का कहना है लाज काज खरचे दरव, लाज काज संग्राम | लाज गये सरबस गयौ, लाज पुरुष की मांग । ११ । शील - 'कको' नाम की बारहखड़ी रचना में पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only RAGA www.jainelibrary.org

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