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० डॉ० गंगाराम गर्ग प्राध्यापक महारानी श्री जया कालिज, भरतपुर
नीतिकाव्य के विकास में हिन्दी
जैन मुक्तक काव्य की भूमिका
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संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य की तरह देवीदास, जयपुर के वुधजन और पार्श्वदास जैसे हिन्दी में भी नीतिकाव्य की समृद्ध परम्परा रही महाकवियों ने 'बनारसी विलास' के अनुकरण पर है।'कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे' की धारणा के अनु- क्रमशः 'धर्मविलास', 'परमानन्द विलास', 'बुधजन सार नीति-सिद्धान्तों की प्रेरणाप्रद चर्चा साहित्य का विलास', 'पारस विलास' जैसे विशाल काव्यग्रन्थों का चरम लक्ष्य भी है।
प्रणयन किया। इनमें अनेक गेय पदों के अतिरिक्त उत्तर मध्यकाल में शासक का लक्ष्य स्वार्थ- लघु रचनाओं के रूप में पर्याप्त अगेय मुक्तक भी लिप्सावश प्रजा का शोषण रह गया तथा अधिकांश हैं। जिनका प्रधान विषय नीति प्रतिपादन है। समाज नीतिभ्रष्ट होकर सुरा-सुन्दरी में लिप्त जैन नीतिकाव्य की इसी परम्परा में अध्यात्म होना अपना आदर्श मानने लगा। हिन्दी के अधि
___ मत के अनुयायी कोसल देश के विनोदीलाल, दादरी कांश कवि भी अर्थलोलुप होकर घोर शृंगारिक देश के धामपुर निवासी मनोहरदास तथा लक्ष्मी
तथा पतनोन्मुखी प्रेम प्रसंगों व झूठे प्रशस्तिगान को चंद ने कवित्त-सवैयों की रचना की। पं. रूपचंद ६ । अपना कर्तव्य मानकर शब्दों का इन्द्रजाल दिखाने
की 'दोहा परमार्थी' हेमराज के 'दोहा शतक' और लगे। तब अनेक जैन कबियों ने समसामयिक
मसामायक 'बुधजन सतसई' के दोहे का प्रमुख प्रतिपाद्य भी वातावरण से प्रभावित न होकर ब्रजभाषा और
नीति ही रहा । गुजरात और राजस्थान में विहार का || उसमें प्रयुक्त दोहा, कवित्त, सवैया आदि छन्दों में
करने वाले महान् सन्त योगिराज ज्ञानसार की ही ऐसा काव्य प्रस्तुत किया, जो व्यक्ति, समाज स्तवनपरक और भक्तिपरक रचनाएँ राजस्थानी में 8 और शासन को आदर्श पथ प्रशस्त कर सके। होते हुए भी दो नीति प्रधान रचनाएँ सम्बोध
__ श्रीमाल परिवार में जन्मे श्वेताम्बर जैन बना- अष्टोत्तरी और प्रस्ताविक अष्टोत्तरी पश्चिम हिन्दी रसीदास ने विभिन्न मत-मतान्तरों का रसपान कर की रचनाएँ हैं। सद्यप्राप्त सोनीजी की नशियाँ एक नया भक्ति-रसायन तैयार किया. जिसमें आत्म- अजमेर में विद्यमान क्षत्रशेष कवि द्वारा विरचित चिन्तन और सदाचार का पुट था। अब निर्गुण ५०० कवित्तों का ग्रन्थ 'मनमोहन पंचशती' नीतिसन्त कवियों के समान जैन संतों की भक्ति और काव्य का अनुपम ग्रन्थ है। उक्त सभी ग्रन्थों में उपासना-पद्धति में सदाचार ने पहले से ज्यादा विद्यमान जैन नीति परम्परा का समन्वित रूप स्थान पा लिया। यही कारण है कि बनारसीदास भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है। नीति के परवर्ती दिल्ली के द्यानतराय, बुन्देलखंड के परम्परा के चतुर्मुखी रूप-आचारनीति, अर्थनीति पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private Personal use only
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सामाजिक नीति एवं राजनीति मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में उपलब्ध हैं ।
आचार नीति - प्रत्येक मनुष्य के आचरण करने योग्य नैतिक सिद्धान्त आचार नीति के अन्तर्गत आते हैं । इन नीति - सिद्धान्तों की अपेक्षा समाज और शासन की तुलना में व्यक्ति के निजी व्यवहार
for अधिक होती है । मनुष्य के निजी आचरण के लिए उपयोगी मानी गई नीतिगत मान्यताएँ दो रूपों में प्रस्तुत की गई हैं- विधेयात्मक और निषेधात्मक | हिन्दी के जैन मुक्तक काव्य में उपलब्ध आचारगत मूल्य इस प्रकार है
विधेयात्मक आचार नीति
अहिंसा-अहिंसा का सिद्धान्त जैनाचार का मूल है। जैनाचार में अहिंसा की सीमा किसी जीव की हत्या न करने तक ही सीमित नहीं । महाकवि बुधजन ने चोरी, चुमली, व्यभिचार, क्रोध, कपट, मद, लोभ, असत्य भाषण तक को हिंसा का अंग मानकर उनके त्याग की प्रेरणा दी है। किसी भी व्यवहार से अन्य प्राणी का चित्त दुःखाना अहिंसा का उच्चतम आदर्श है । बुधजन के शब्दों मेंये हिंसा के भेद हैं, चोर चुगल विभिचार क्रोध कपट मद लोभ फुनि, आरम्भ असत विचार । ६६८
अपरिग्रह :
अध्यात्मी बनारसीदास चित्त की स्थिरता और शान्ति के लाभ के लिए अपरिग्रह वृत्ति को ग्राह्य बतलाते हैं
जहां पवन महिं संचरे, तह न जल कल्लोल ।
सब परिग्रह त्याग तें, मनसा होय अडोल |५| ज्ञान पच्चीसी क्षमा- दश लक्षण धर्मों में प्रमुखतम, क्षमाभाव एक अज्ञात कवि की बारहखड़ी रचना 'कको ' में संघर्ष को दूर करने वाला कहा गया है—
ष षटक निकारि के, बिमा भाव चित्त ल्याव । बुले कपाट अभ्यास के, बिरे कर्म दुखदाय ।
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इन्द्रिय - निग्रह -- स्पर्श, दर्शन, श्रवण, स्वाद व घना पांचों कर्मों के व्यवहार से प्राणी की पहचान होती है, किन्तु नीतिकारों ने इस इन्द्रियजन्य कर्मों का सेवन मर्यादानुकूल और सीमित ही माना है । अधिकांश जैन नीतिकारों ने हाथी, पतंग, मृग, मीन और अलि का उदाहरण देते हुए उक्त पाँचों कर्मों के अत्यधिक सेवन का निषेध किया है । बुधजन कहते हैं—
गज पतंग मृग मीन अलि, भये जाके पांची बसि नहीं, ताकी
अध्य बसि नास । कैसी आस ।। १६ ।।
पं० रूपचन्द ने दोहा परमार्थी में इनको दुःखदायी और तृष्णा बढ़ाने वाला कहा है । उनकी धारणा है कि अस्थि का चर्वण करने वाले कुसे के समान विषयों के सेवन से विषयो मनुष्य की अतृप्ति बनी रहती है, फिर भी अज्ञानता के कारण वह अपनी ही हानि करता रहता है
विषयन सेवत हो भले, तिस्ना ते न बुझाइ । ज्यों जल खारी पीव तै, बाढै तिस अधिकाय |४| विषयन सेवत दुख मले, सुष विति हारे जाँन । अस्थि चवत निज रुधिर ते, ज्यों सुख मानत स्वान |६| इन्द्रिय-निग्रह का आधार है मन पर नियंत्रण । मनुष्य इन्द्रिय -लोलुप तभी रहता है, जब उसका मन मतवाले हाथी के समान अंकुश की अवहेलना कर देता है । बनारसीदास का कथन है---
क्यों अंकुस मानें नहीं, महा मत गजराज 1 त्यों मन तिसना में फिरे, गिणे न काज अकाज ॥ १०१ - ज्ञान पच्चीसी
कवि भगवतीदास ने मन के स्वतन्त्र स्वभाव का चित्रण 'मन बत्तीसी' में करते हुए उस पर विवेक का अंकुश लगाये रखने का संकेत दिया हैमन सौं बली न दूसरी, देष्यौ यहि संसारि । तीन लोक मैं फिरत हौ, जाइ न लागे बार 15 मन दासन को दास है, मम भूषन को भूप । मन सब बालन जोग है, मन की कथा अनूप
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सत्संग-मध्यकाल में अध्यात्म-उपासना के शत्रु को दीजिए वैर रहै नहीं, प्रारम्भकर्ता साम्प्रदायिक वर्म भेद से दूर महान्
भाट को दीजिए कीरति गावै। सन्त बनारसीदास ने सत्संग के सामर्थ्य को प्रति- साध को दीजिए मोख के कारन, पादित करते हुए कहा है कि जिस प्रकार मलया
हाथ दियो न अकारथ जावै ।४५। चल की सुमन्धित पचन नीम के वृक्ष को चन्दन के जैन परम्परा में दान के चार प्रकारसमान सुगन्धित बना देती है, उसी प्रकार साधु औषधिदान, अन्नदान, अभयदान और ज्ञान-IN का साथ कुर्जन को भी सम्जन बना देता है- दान महत्वपूर्ण माने गए हैं। बत्तीसढाला के रच-साडू निंबादिक चंदन करै मलयाचल की बास। यिता टेकचन्द ने चारों दानों का प्रतिफल इस दुर्जन ते सज्जन भयो, रहत साधु के पास । २० प्रकार कहा है
-ज्ञान पच्चीसी जो दे भोजन दान, सो मनवांछित पावै । मनोहरदास ने 'पारस' के संसर्ग से 'कंचन' में औषदि दे सो दान, ताहि न रोग सतावै । परिवर्तित होने वाले लोहे और 'रसायन' का सह- सूत्र तणां दे दान, ज्ञान सु अधिको पावै ।। योग पा सुस्वादु बनने वाले 'कत्था' का भी उदा- अभैदान फल जीव, सिद्ध होइ सो अमर कहावै ॥३२॥ हरण देकर सत्संग का माहात्म्य पुष्ट किया है- हेमराज गोदीका के मत से सम्पत्ति दान देने चंदन संग कीये अनि काठि
से शोभा और वृद्धि को प्राप्त करती हैजु चंदन गंध समान जुहो है।
संपति खरचत डरत सठ, मत संपति घटि जाय । 10 'पारस' सों परसे जिम लोह,
इह संपति शुम दान दी, विलसत बढ़त सवाइ ।६६|| जु कंचन सुद्ध सरूप जु सोहै। योगिराज ज्ञानसार जी ने अपना-पराया तथा पाय रसायन होत कथीर
पात्र-अपात्र का विचार किये बिना बड़ी उदारता||Ka जू रूप सरूप मनोहर जो है।
से दान देने का निर्देश दिया हैत्यो नर कोविद संग कीयै
अनुकंपा दांने दियत, कहा पात्र परखंत । सठ पंडित होय सबै मन मोहै। सम विसमी निरखै नहीं, जलधर धर बरसंत ।१५|| दान-दान अपरिग्रह का प्रकट रूप है । अतः
-प्रस्तावित अष्टोत्तरी दान की महिमा सभी जैन मुक्तककारों ने थोड़ी वचन-सृष्टि के अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत अवश्य कही है। महाकवि द्यानतराय की मनुष्य को वाणी की सुविधा परमात्मा की एक ५२ छन्द की रचना दान बावनी के अनुसार निर्धन, अद्भुत कृपा है। महाकवि बनारसीदास और सेवक, भाट, साधु को दिया गया दान ही लाभ- ज्ञानसार दोनों ने ही कर्कश वचन त्यागकर मृड ) कारी नहीं होता, अपितु शत्रु को दिया गया दान वचन कहना प्रियता और टूटे दिलों को जोड़ने का || वैरभाव को समाप्त कर देने का महत्वपूर्ण काम साधन बतलाया हैकरता है
जो कहै सहज करकश वचन, सो जग अप्रियता लहै || दीन को दीजिये होय दया मन,
-वच. रत्न कविस-४ मीत को दीजिये प्रीति बढ़ावै ।। मन फाटे कू मृदु वचन, कह्यो करन उपचार। सेवक को दीजिए काम करै बहु,
टूक टूक कर जुड़न कू, टांका देत सुनार ।४४। | ____ साहब दीजिए आदर पावै।
- संबोध अष्टोत्तरी पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000
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टेकचन्द के विचार से बिना समझकर बोलने गुन हीये करै जु धाय, ओगुन नहि चितलाय ।
मधुर बैन बोले, सुमारिंग को लेत जूं | २२ समतावान व्यक्ति क्रोधी व्यक्ति को भी शान्त कर देता है
से अपयश का भागी बनना होता हैवचन बोलिये समझ के द्रव्य क्षेत्तर जोइ । बिन समझे बोलति है, अपजस लेह सोइ |२७|
महाकवि बुधजन ने जिह्वा पर नियंत्रण रखकर अधिक खाने के अतिरिक्त अधिक बोलने की मनाही भी की है
रसना राखि मरजादि तू, भोजन वचन प्रमान । अति भोगति अति बोलतें, निहच हो है हांन ॥ २१७
अवसरोचित व्यवहार -- मनुष्य एक सामाजिक एवं बुद्धिसम्पन्न प्राणी है । अतः उसमें अवसरानुकूल व्यवहार की चतुराई जैन नीतिकारों ने भी आवश्यक मानी है । प्रकृति के सभी कार्य यथावसर सम्पन्न होते हैं इसलिए कवि 'गद' मनुष्य को अवसर न चूकने का उपदेश देते हैं-
अवसरि घनहर गुड़, फूल पणि अवसरि फूलै । अवसरि बालित बल गहर, निसाण गहीलै । अवसरि बरसे मेह, गीत पणि अवसर गावै । अवसर चूकै मूढ़ तकै, पाछे पिछतावे । अवसरि सिंगार कांमणि करै,
अवसर भ्रात परखिये । कवि 'गद' कहै सुण राय हो,
सो अवसर कबहु न चूकिये । बुधजन बोलने और मौन रहने के लिए भी अवसर का ध्यान रखना अपेक्षित समझते हैं-ओसर लखि के बोलिये, जथा जोगता बैन । सावन भादों बरस तैं, सबही पावै चैन । ११६ | बोल उठे औसर बिना, ताका रहै न मान । जैसे कातिक बरस तें निन्दै सकल जहांन | ११७ | समता - निन्दा अथवा स्तुति, द्वेष और राग को बढ़ाती है, अतः नीतिकारों ने समता भाव धारण करने पर बल दिया है समता भाव से व्यक्ति की वाणी सहज ही मधुर हो जाती हैनिंदा न करें काहू, औगुन परिगुन जाइ । संवर मन करि कैं, समता रस धारि जू |२१|
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अति शीतल मृदु वचन तें, क्रोधानल बुझ जाय । ज्यूँ उफणतें दूध कू, पानी देत समाय ॥१६॥
- ज्ञानसार कृत प्रस्तावित अष्टोत्तरी । महाकवि द्यानतराय समतावान् से यह अपेक्षा रखते हैं कि वह शत्रु का भी सम्मान करेथावर जंगम मित्र रिपु, देखे आप समान । राग विरोध करें नहीं, सोई समतावान । - तत्त्वसार भाषा, छंद ३८ निज शत्रु जो घर माँहि आवै, मान ताको कीजिए । अति ऊँच आसन मधुर वानी, बोलिकै जस लीजिए । -दान बावनी छंद २७
दया— कविवर विनोदीलाल ने अपनी रचना 'नवकार मंत्र महिमा' में सभी उपासना पद्धतियों में श्रेष्ठ व उत्तम साधना कहकर 'दया' को सर्वाधिक महत्व दिया हैद्वारिका के न्हाये कहा, अंग के दगाये कहा,
संख के बजाये कहा राम पाइतु है । जटा के बढ़ाये कहा, भसम के चढ़ाये कहा,
धूनी के लगाये कहा सिव ध्यायतु है । कान के फराये कहा, गोरष के ध्याये कहा, सींग के सुनाये कहा सिद्ध ल्याइतु है । दया धर्म जाने आपा पहिचाने बिनु, कहै 'विनोदी' कहूँ मोष पाइतु है । ३३ । मर्यादा -रक्षण - अपने कर्त्तव्य अथवा लक्ष्य की पूर्ति में जुटे रहने व उसमें सर्वस्व होम देने का संकेत सभी नीतिकारों ने दिया है। सतसईकार बुधजन का कहना है
लाज काज खरचे दरव, लाज काज संग्राम | लाज गये सरबस गयौ, लाज पुरुष की मांग । ११ । शील - 'कको' नाम की बारहखड़ी रचना में
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शील को तप और 'वैराग्य' के समकक्ष महत्व दिया परधन चोरी अर वेश्या को त्याग करी परनारी।
_'सूरति' इस भव में सुख पावे, परभव सुख अधिस सा सील सरीसो तप नहीं सील बड़ो वैराग ।
कारी ॥२६॥ सील सरपन बावड़े, सीला सीतल आग । विनोदीलाल ने सप्त व्यसनों में रत व्यक्ति को
क्षत्रशेष शील को विघ्नविनाशक, दुःखहर्ता नरक में जाने का भय दिखाया हैतथा पूर्व कर्मबंधों को विघटित करने वाला मानते हिंसा के करैया, मुख झूठ के बुलैया,
हैं। शील ही यश और सुख का दाता है। अन्य परधन के हरैया, करुणा न जाकै हीये हैं। 4 गुणों का समूह तो शील के पालन होने पर स्वतः ही हृदय में बस जाता है
सहत के खवईया, मदपान के करइया,
कन्द मूल के षवइया, अरु कठोर अति हीये हैं। सील ते सकल गुन आप हिय वास करें,
सील तें सुजस तिहु जग प्रघटत है। सील के गमइया, झूठी साखि के करइया, सील ते विघन ओघ रोग सोग दूर होय,
__महा नरक के जवइया जिन और पाप कीए हैं। सील तें प्रबल दोस दुष विघटत है। नीतिकार लक्ष्मीचन्द ने सातों व्यसनों को * सील तें सुहाग भाग दिन दिन उदै होय, त्यागने की शिक्षा उपदेशात्मक शैली में श्रावक को
पूरब करम बंध दिननि घटत है। इस प्रकार दी हैसील तें सुहित सुचि दीसत न आंनि जग,
जूवा मति षेलो जानि, मांस अति षोटो मांनि, सील सब सुष मूल वेद यों रटत है।
मद सब तजि अर वेश्यां तजि नर तू निषेधात्मक आचार नीति
आखेट न कीज्यो मुक्ति चोरी न करो । मनुष्य को जिन मनोवृत्तियों और दुर्गुणों से
भूल पर बनिता तजि हित निज नारी करिजू । - दूर रहने को कहा जाता है, उन्हें निषेधात्मक मूल्य कहा जा सकता है। जैन मुक्तकों में ये मूल्य इस ऐहि सात विसन जांनि, त्यागि भव उर आंनि। प्रकार हैं
कहै जिनवानी में पोटे चित धरि जू ।।२४॥ ||5 सप्त व्यसन-अधिकांश जैन नीतिकारों ने रीति- सामन्तों की विलासप्रियता को बढ़ाने वाले 12 काल के प्रमुख दुर्गुण द्य तक्रीड़ा, मद्यपान, मांस- अर्थलोलुप दरबारी कवियों को परकीया-प्रेम के भक्षण, पर-नारीगमन, शिकार, स्तेय और वेश्या- अमर्यादित आकर्षक चित्र खींचने में कोई संकोच
गमन आदि दुर्गुणों की कई स्थानों पर तीव्र नहीं रहा था, उनका आचरण भारतीय आचार-700 1 भर्त्सना की है। बारहखड़ी के रचयिता जैन कवि विचार के बड़ा प्रतिकूल था। जैन कवियों को | * सूरति सप्तव्यसन के त्याग को ही सुख पाने का इससे बड़ी खीझ रही । अतः उन्होंने उग्र स्वरों में | आधार बतलाते हैं
परकीया-प्रेम की भर्त्सना की । लक्ष्मीचन्द परनारी बबा विसन कुविसन है, विसन सात तू त्यागि। को विष की झाल और अग्निदाह की संज्ञा देकर बसि करि पाँचों इंद्रीनि कौं सुभ कारिज कौं लागि उसकी भयानकता इस प्रकार प्रकट करते हैंशुभ कारज को लाग करि विसन सात ये भारी। परनारी परतषि जानि अति विष की झाला। जूवां आमिस, सुरापान, मधु षेटक नाम बिसारी। परनारी परतषि मान, तुव अगनि विसाला । | पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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CB परनारी परतषि, सील गुन भांजे छिन में । देवीदास ने कामाग्नि को शीलरूपी वृक्ष को
परनारी परतषि, जानि षोटी अति मन में। भस्म करने वाली बतलाकर व कामान्ध व्यक्ति को एह जानि भवि पर नारि को,
नीच, महादूःख का भोगी, अपने लक्ष्य में सर्वथा तजो सील गुन धारि के। असफल होने वाला व्यक्ति प्रतिपादित कर उसकी 'लषमी' कहत रावन गये,
कटु शब्दों में भर्त्सना की हैनरक भूमि निहारि कै।
काम अंध सो पुरिष, सस्य करि सके न कारज ।
काम अंघ सो पुरिष, तासु परिणाम न आरज। कषाय-जन आचार परम्परा में काम, क्रोध, काम अंध सह क्रिया मिले. इक रंच न कोई। | मोह और मान चार कषाय माने गये हैं, जिनका
. काम अंध से अधम नहीं, जग में जन सोई। ( त्याग श्रावक को आवश्यक माना है। नीतिकारी गति नीच महा दूष भोगवत, ने कषाय का विवेचन इस प्रकार किया है।
सो सब काम कलंक फल । ___द्यानतराय ने वृद्धावस्था की दुर्दशा का चित्रण सो कामानल करि कै दहत, SH करते हुए लोभ द्वारा नियन्त्रित रहने की भर्त्सना
परम सील तरुवर सबल ।। प्रेरणाप्रद स्वरों में की है
क्रोध होने की स्थिति में व्यक्ति को नीति-अनीति कि भूख गई घटि, कूख गई लटि, सूख गई कटि खाट पर्यो है ।
., का ज्ञान तो रहता ही नहीं, वह आत्म-पीड़ित भी ( बैन चलाचल नैन टलावल
होता है। बुधजन का मत हैचैन नहीं पल व्याधि भरयो है। नीति अनीति लखै नहीं, लखै न आप बिगार । अंग उपांग थके सरवंग प्रसंग किए
पर जारै आपन जरै, क्रोध अगनि की झार ।६७२। ___जन नाक सर्यो है। काम, क्रोध, लोभ या मोह के अतिरिक्त चौथे । 'द्यानत' मोह मरित्र विचित्र, गई सब सोभ कषाय अभिमान की निन्दा उसकी निरर्थकता के
न लोभ हट्यो है ।३६ सर्क से प्रतिपादित की है। संसार में सहज गति से
-धर्मरहस्य बावनी होने वाले निर्माण एवं विमाश के कार्यों में व्यक्ति घद्धावस्था में भी काम-वासना की निरन्तरता स्वयं को कर्ता मान लेता है। यह एक भ्रम मात्र है। बने रहने की स्थिति बुधजन को पीडित करती ।
हेमराज गोदीका का कथन हैहै । तभी वे कामासक्त मनुष्य को प्रतारणा देते होत सहज उत्पात जग, बिमसत सहज सुभाइ । हुए कहते हैं
मूढ़ अहंमति धारि के, जनमि जनमि भरमाइ ।३।। तो जोबन में भामिनि के संग,
तृष्णा-किसी वस्तु को हर स्थिति में प्राप्त निसदिन भोग रचावै। करने की सामान्य इच्छा लोभ और तीव्रतम इच्छा अंधा है धन्धे दिन सोदै,
तृष्णा कही जा सकती है। अन्य प्राणियों की बूड़ा नाडि हलावै। अपेक्षा प्रकृति की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने के जम पकर तब जोर न घाले,
बाद भी मनुष्य किसी अप्राप्य वस्तु के लिए चिंतित सैन बतावै। रहसा है तथा उसको प्राप्त करने की अमर्यादित मंद कषाय हूवै तो भाई,
मेष्टा करता है। एक अज्ञात कलि ने अपने ३२ दोहों . भुवन त्रिक पद पावै ।। में से एक दोहे में थामा या तृष्णा की स्थिति को
-षड पाठ पराधीनता-सूलक कहा है
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 50 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ esto)
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जे आसा के दास ते पुरुष जगत दास के दास । बाह्याचार-आसक्ति-अध्यात्मचिन्तन में आसा दासी तास की, जगत दास है तास ॥ पर्याप्त-स्वतन्त्रता होने के कारण भारत में
महाकवि पार्श्वदास ने हितोपदेश पाठ में मनुष्य उपासना पद्धतियाँ विभिन्न रूपों में बढ़ती की बढ़ती हुई तृष्णा को उसके लक्ष्य में बाधक माना
रही हैं। स्वार्थ की प्रबलता के कारण इन
उपासना-पद्धतियों का लक्ष्य उपास्य के प्रति निष्ठा विषय कषाय चाय तृष्णावति होवै।
को अनदेखा कर प्रदर्शन और रूढाचार की ओर हित कारिज की बात कबूं नहिं जोवै ।।
मुड़ता गया है। इसके विरोध में निर्गण सन्तों ने धन उपार्जन करू विदेसां जावू ।
तो अपने उद्गार प्रकट किये ही, जैन नीतिकार भी वा राजा महाराजा . रिझवायूँ ।
इसकी उपेक्षा नहीं कर सके । मिथ्यात्व से छुटकारा ब्याह करू तिय कं, गहणां ।
पाये बिना शास्त्र पठन, कायाकष्ट, योगासन आदि लाणि बांटि जाति में, नाम करवायूँ ।
बाह्याचार के प्रति जैन कवि विनोदीलाल ने कबीर गेह चुनावू और सपूत कहलावू ।
जैसे तेवर ही दिखलाए हैंविषय कषाय बढ़ाय, बड़ा हो जावू । ग्रन्थन के पढ़े कहा, पर्वत के चढ़े कहा यूं तृष्ना वसि मिनष जन्म करि पूरो।
कोटि लक्षि बढ़े कहा रंकपन में । हित कारिज करणे में रह्यो अधूरो ॥२०॥ संयम के आचरे कहा, मौन व्रत धरे कहा,
द्यानतराय ने अपनी 'धर्म रहस्य बावनी' में तपस्या के करे कहा, कहा फिरै वन में । 3 तृष्णा को हृदयपीड़क कहा है। तृष्णाहीन व्यक्ति दाहन के दये कहा, छंद करैत कहा, बेपरवाह होकर अत्यन्त सुख पाता है
जोगासन भये कहा, बैठे साधजन में । चाह की दाह जलै जिय मूरख,
जो लों ममता न छूट, मिथ्या डोर ह न टूटे, बेपरवाह महासुषकारी ॥२॥
ब्रह्म ज्ञान बिना लीन लोभ की लगन में । चिन्ता-अप्राप्य जानकर भी किसी वस्तु को मुक्तककार हेमराज ने शास्त्रपठन, तीर्थस्नान प्राप्त करने के लिए मानसिक पीडा पाना चिन्ता तथा विरक्ति भाव को सदाचार के अभाव में का भाव है। चिन्ता को चिता के समान बतलाकर
निरर्थक माना हैद्यानतराय ने पुरानी परम्परा का ही निर्वाह पढ़त ग्रन्थ अति तप तपति, अब लौं सुनी न मोष । किया है।
दरसन ज्ञान चरित्त सों, पावत सिव निरदोष ॥२७।। ५ चिंता चिता दूह विष, बिंदी अधिक सदीव । कोटि बरस लौं धोइये, अढसठि तीरथनीर । चिंता चेतनि को दहै, चिता दहै निरजीव ॥१८॥ सदा अपावन ही रहै, मदिरा कुंभ सरीर ॥३०॥
भाग्यवश जो प्राप्त हो जाय, वह यथेष्ट है। निकस्यो मंदिर छोड़ि के, करि कुटम्ब को त्याग । Cil इस परम्परागत संस्कार के कारण द्यानतराय कुटी मांहि भोगत विष, पर त्रिय स्यों अनुराग ॥२८॥ | चिन्ता की स्थिति में कोई तर्क संगति भी नहीं बनारसीदास के गुरु पं० रूपचन्द अपनी रचना देखते
'दोहा परमार्थी' में तत्व चिन्तन के बिना बाह्याचार । रेनि दिना चिन्ता, चिता मांहि जल मति जीव । का कोई मूल्य नहीं मानते- . जो दीया सो पाया है, और न देय सदैव ॥४४॥ ग्रन्थ पढ़े अरु तप तपो, सही परीसह साहु। ।
-सुबोध पंचाशिका केवल तत्व पिछानि बिनु नहीं कहूँ निरबाहु ||६४॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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शोक-पश्चात्ताप अथवा 'शोक' की स्थिति खात न खरचत, विलसयत, दान दियन को बात । GND
भी जैन नीतिकारों ने अच्छी नहीं मानी। दूरजय लोभ अचित गति, सचित धन मर जात 1८३॥ लक्ष्मीचन्द कहते हैं कि शोक करने से व्यक्ति का
सामाजिक नीति-निश्चित भूभाग पर निश्चित सुख नष्ट हो जाता है । 'शोक' या 'पश्चात्ताप'
सामाजिक मर्यादाओं के साथ जीवन व्यतीत करने करने से बिगड़े काम में कोई सुधार भी नहीं हो
वाले व्यक्ति समाज का निर्माण करते हैं। भारतीय सकता
नीतिकारों ने गुरु, नारी, तथा सामाजिक व्यवहार सोच कब न कोज, मन परतीत लोज्यौ, आदि विषयों पर नीतिपरक उक्तियों अभिव्यक्त की मार तेरी सोच कीये, कह कारिज न सरिहै, है। सोच कीये दुष भास, सुष सब ही जन नासै
__ गुरु-निर्गुण एवं सगुण भक्ति काव्य की तरह
॥२५॥ जैन नीतिकारों ने गुरु का सर्वाधिक महत्व माना दष्कर्म-दष्कर्म के उदय मात्र से धार्मिक और है। गुरु ही मनुष्य को समाज में : सदाचार की बातें कतई नहीं सुहाती, इसी भय से जीने योग्य बनाता है। परम्परागत नीतिकारों की दुष्कर्म से बचते रहने की सीख कविवर बनारसीदास तरह बनारसीदास के गुरु पण्डित रूपचन्द गुरु का ने अपनी 'ज्ञान पच्चीसी' में दी है
महत्व इस प्रकार प्रकट करते हैंज्यों ज्वर के जोर से, भोजन की रुचि जाय। गुरु बिन भेद न पाइये, को पर को निज वस्तु । तैसें कुकरम के उदय, धर्म वचन न सुहाय ।।२।। गुरु बिन भव सागर विषै, परत गहै को हस्तु ।१७।
दुष्कर्म का एक छोटा अंश भी समस्त अच्छाइयों गुरु माता अर गुर पिता अरु बंधव गुरु मित्त । को उसी प्रकार खत्म कर देता है जिस प्रकार मीठे
हित उपदेश कवल ज्यों विगसावै जिन चित्त ६६ दूध को छाछ की एक बूंद खट्टा बना देती दुर्जन-सज्जन-समाज में भले-बुरे दोनों ही
प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं। तुलसीदास आदि टटा टपको छाछि को, मटकी दुध में डार। सभी प्रमुख कवियों ने प्रवृत्तियों के आधार पर मीठा सो षाटो करै, यहै कर्म विचारि । ११ ।कको. दुर्जन और सज्जन दोनों वर्गों की विशेषताएँ अंकित
___ की हैं। जैन नीतिकारों ने दुर्जन को सर्प और 3 __अज्ञात कवि की रचना 'क को' में किसी काम
सज्जन को कल्पवृक्ष के रूप में प्रस्तुत कर क्रमशः की सम्पन्नता के लिए दूसरे की बाट जोहना या
__ उनकी कुटिलता और उदाराशयता की ओर इंगित उसके आधीन रहना दुःखदायी कहा है
किया है । लक्ष्मीचन्द और अज्ञात कवि के दो छन्द हाहा हू व्योहार है के परवश दुखदाय । इस प्रकार हैं
क्यों न आप बसि हूजिये, होय परम सुखदाय ।३६। दुरजन सरप समान बिई छल ताकत डोले । NIE
कृपणता-कविवर विनोदी लाल ने अपनी दुरजन सरप समान, सति वचन कबहु न बोले। सम्वादात्मक रचना कृपण पच्चीसी में पति-पत्नी के दूरजन सरप समान, दूध किम पावो भाई। संवाद के माध्यम से कृपण पति के स्वभाव पर दुरजन सरप समान, अंति विष प्रान हराई। फब्तियाँ कसी हैं ? संत ज्ञानसार तो धन का सदु- दुरजन सम नहीं जान तुव तीन लोक में दृष्टजन। पयोग न करने वाले कृपण को 'मृत' के समान ऐह जांनि भवि तुम धीजमति, तिरस्कृत मानते हैं
लिषमी कहैत भवि लेहु सुन ।१०॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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सज्जन परितुछ न करें, मानै गिर गुन भाय ।
सज्जन पुरुष सब, कलप ब्रष सम थाय । सामाजिक व्यवहार - पारस्परिक मेलजोल से रहने व एक-दूसरे का सम्मान करने से ही अच्छे समाज का निर्माण होता है । नीतिकार बुधजन ने पारस्परिक व्यवहार में उत्तम शिष्टाचार की अपेक्षा की है
आवत उठि आदर करै, बोले मीठे बैन । जाते हिलमिल बैठना जिय पावे अति चैन | १४५ | भला बुरा लखिये नहीं आये अपने द्वार । मधुर बोल जस लीजिए, नातर अजस तैयार । १४६ ।
समाज में व्यवहार करते समय अधिक सरलता की अपेक्षा थोड़ी चतुराई का भाव रखना चाहिएअधिक सरलता सुखद नहीं, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बांके खरे हजार ।।१६५ ।। - बुधजन सतसई नारी- काम की प्रबलता के विरोध के कारण मध्यकालीन काल में नारी के प्रति कटूक्तियाँ अधिक कह दी गई हैं, जिससे नारी की गरिमा हानि हुई है । 'राजमती' और 'चन्दनबाला' के आदर्श चरित्र प्रस्तुत करने वाले जैन काव्य में कटूक्तियाँ अपेक्षाकृत कम हैं। नारी का एक सुखद चित्र जैन कवि साधुराम ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है
नारी बिना घर में नर भूत सो,
नारी सब घर की रखवारी । नारि चषावत है षट् भोजन,
नारि दिखावत है सुख भारी । नारी सिव रमणी सुष कारण,
पुत्र उपावन कूं परवारी । और कहाय कहा लूं कहूँ तब,
सा बड़ी मन रंजनहारी । आर्थिक नीति- भूख, रोजगार, निर्धनता, धन के उपयोग सम्बन्धी उक्तियाँ आर्थिक नीति का अंग हैं ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
भूख - अध्यात्मसाधना, सदाचार, कुलमर्यादा का पालन भूख की स्थिति में नहीं हो सकता, अतः अच्छे समाज के निर्माण की भावना रखने वाले राष्ट्र-निर्माताओं को सबको 'रोटी' की व्यवस्था करनी चाहिए । 'मनमोहन पंच शती' के रचनाकार छत्रशेष का कथन है
तन लौनि रूप हरे, थूल तन कृश करें, मन उत्साह हरै, बल छीन करता । छिमा को मरोरै गही, दिढ़ मरजाद तोरे, अज सहेन भेद करें लाज हरता । धरम प्रवृत्ति जप तप ध्यान नास करें, धीरज विवेक हरै करति अथिरता । कहा कुलकानि कहा राज पावे गुरु, आन क्षुधा बस होय जीव बहुदोष करता । रोजगार – बेरोजगारी का कष्ट आज ही नहीं, मध्यकाल से ही व्यक्ति अनुभव करता रहा है । रोजगार से ही व्यक्ति को समाज और परिवार में प्रतिष्ठा मिलती है ।
रोजगार बिना यार, यार सों न करें बात, रोजगार बिन नारि नाहर ज्यों धूरि है । रोजगार बिना सब गुन तो बिलाय जाय, एक रोजगार सब, ओगुन को चूर है । रोजगार बिना कछू बात बनि आवै नहीं, बिना दाम आठो जाम, बैठा धाम झूर है । रोजगार बिना नांहि रोजगार पांहि, असो रोजगार येक धर्म कीये पूर हैं ||१७|| निर्धनता का एक भयावह चित्र मनोहरदास ने भी प्रस्तुत किया है—
नहीं पावै ।
भूष बुरी संसार, भूष सबही गुन मोवै । भूष बुरी संसार, भूष सबको मुष जोवै । भूष बुरी संसार, भूष आदर भूष बुरी संसार, भूष कुल भूष गंवावै लाज, भूष न मन रहसि मनोहर हम कहें,
भूष बुरी संसार में ॥११॥
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
कान घटावै ।
राषै कारमें ।
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________________ महाकवि बनारसीदास ने कु-कलाओं के अभ्यास भूपति विसनी पाहुना, जाचक जड़ जमराज।। की निन्दा करते हुए दरिद्रता को प्रतिष्ठा का घातक ये परदुःख जोवै नहीं, कीयै चाहै काज / / 263 // बतलाया है राजा से परिचय थोड़ा-बहुत अवश्य लाभदायक कूकला अभ्यास नासहि सुपथ, होता हैदारिद सौ आदर टलै / महाराज महावृक्ष की, सुखदा शीतल छाय। निर्धन हो जाने पर लोगों के सम्पर्क तोड़ देने सेवत फल लाभ न तो, छाया तो रह जाय // 12 // की निर्दयता पर ज्ञानसार ने व्यंग्य किया है प्रजा को राजा के आदेशों व नीति का अनुधन घर निर्धन होत ही, को आदर न दियंत / सरण करना चाहिए। ज्यों सूखे सर की पथिक, पंखी तीर तजत / / नृप चाले ताही चलन, प्रजा चले वा चाल / जा पथ जा गजराज तह, जातजू गज बाल / 'अपरिग्रह' दान के रूप में धन की सीमितता // 138 // और सदुपयोग तथा 'लोभ' व कृपणता की निन्दा __ राजा और प्रजा के मधुर सम्बन्ध बनाये रखने के रूप में धन की समुचित उपयोगिता की उक्तियाँ | में मन्त्री को बड़ी भूमिका रहती हैआर्थिक नीति के अन्तर्गत भी समाहित की जा सकती है। नृप हित जो पिरजा अहित, पिरजा हित नृप रोस / दोउ सम साधन करै, सो अमात्य निरदोष // 210 // राजनीति-शासक एवं शासित की प्रवृत्तियाँ, अच्छे मन्त्रियों के अभाव में राजा अपने आदर्शों शासन के अंग और उनके कर्तव्य तथा शासन-व्यवस्था से सम्बन्धी उक्तियाँ राजनीति के अन्तर्गत आती हैं। से च्युत हो जाता हैअधिकांश जैन नीतिकारों के मक्तकों में राजनीति नदी तीर को रूखरा, करि बिनु अंकुश नार / नहीं है। दीवान के रूप में जयपर राज्य में काम राजा मंत्री ते रहित, बिगरत लगै न बार // 124 // करने वाले कवि बुधजन ने राजनीति के सम्बन्ध में उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी जैन अपने विचार प्रकट किये हैं। मुक्तक काव्य में वैयक्तिक व्यवहार, समाज, राज्य ___ बुधजन के अनुसार शासक अथवा राजा ढीले 5 एवं अर्थ से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं का गम्भीरता-C चित्त का नहीं होना चाहिए, नहीं तो दृढ़तापूर्वक पूर्वक विवेचन किया गया है। भारतीय नीति अपने आदेश नहीं मनवा सकेगा साहित्य के विकास में शिपिलाचार के युग में लिखी 1122 गई इन रचनाओं का सामयिक योगदान तो है ही, | 1 - गनिका नष्ट संतोष तें, भूप नष्ट चित्त ढील। उक्त रचनाएँ भारतीय चिन्तन की संवाहक होने पर // 177 / / के कारण आज भी मूल्यवान् हैं। राजा अपने कार्य की पूर्ति के लिए किसी की भारतीय चिन्तन और काव्य के विकास में MOL पीड़ा को सहृदयतापूर्वक नहीं विचारता इनका उल्लेख अतीव आवश्यक है / पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास - (CONTRASTRO ton International (@2600 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ मत. Jain E Sr Novate & Personal Use Only 7 www.jainelibrateo