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सामाजिक नीति एवं राजनीति मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में उपलब्ध हैं ।
आचार नीति - प्रत्येक मनुष्य के आचरण करने योग्य नैतिक सिद्धान्त आचार नीति के अन्तर्गत आते हैं । इन नीति - सिद्धान्तों की अपेक्षा समाज और शासन की तुलना में व्यक्ति के निजी व्यवहार
for अधिक होती है । मनुष्य के निजी आचरण के लिए उपयोगी मानी गई नीतिगत मान्यताएँ दो रूपों में प्रस्तुत की गई हैं- विधेयात्मक और निषेधात्मक | हिन्दी के जैन मुक्तक काव्य में उपलब्ध आचारगत मूल्य इस प्रकार है
विधेयात्मक आचार नीति
अहिंसा-अहिंसा का सिद्धान्त जैनाचार का मूल है। जैनाचार में अहिंसा की सीमा किसी जीव की हत्या न करने तक ही सीमित नहीं । महाकवि बुधजन ने चोरी, चुमली, व्यभिचार, क्रोध, कपट, मद, लोभ, असत्य भाषण तक को हिंसा का अंग मानकर उनके त्याग की प्रेरणा दी है। किसी भी व्यवहार से अन्य प्राणी का चित्त दुःखाना अहिंसा का उच्चतम आदर्श है । बुधजन के शब्दों मेंये हिंसा के भेद हैं, चोर चुगल विभिचार क्रोध कपट मद लोभ फुनि, आरम्भ असत विचार । ६६८
अपरिग्रह :
अध्यात्मी बनारसीदास चित्त की स्थिरता और शान्ति के लाभ के लिए अपरिग्रह वृत्ति को ग्राह्य बतलाते हैं
जहां पवन महिं संचरे, तह न जल कल्लोल ।
सब परिग्रह त्याग तें, मनसा होय अडोल |५| ज्ञान पच्चीसी क्षमा- दश लक्षण धर्मों में प्रमुखतम, क्षमाभाव एक अज्ञात कवि की बारहखड़ी रचना 'कको ' में संघर्ष को दूर करने वाला कहा गया है—
ष षटक निकारि के, बिमा भाव चित्त ल्याव । बुले कपाट अभ्यास के, बिरे कर्म दुखदाय ।
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इन्द्रिय - निग्रह -- स्पर्श, दर्शन, श्रवण, स्वाद व घना पांचों कर्मों के व्यवहार से प्राणी की पहचान होती है, किन्तु नीतिकारों ने इस इन्द्रियजन्य कर्मों का सेवन मर्यादानुकूल और सीमित ही माना है । अधिकांश जैन नीतिकारों ने हाथी, पतंग, मृग, मीन और अलि का उदाहरण देते हुए उक्त पाँचों कर्मों के अत्यधिक सेवन का निषेध किया है । बुधजन कहते हैं—
गज पतंग मृग मीन अलि, भये जाके पांची बसि नहीं, ताकी
अध्य बसि नास । कैसी आस ।। १६ ।।
पं० रूपचन्द ने दोहा परमार्थी में इनको दुःखदायी और तृष्णा बढ़ाने वाला कहा है । उनकी धारणा है कि अस्थि का चर्वण करने वाले कुसे के समान विषयों के सेवन से विषयो मनुष्य की अतृप्ति बनी रहती है, फिर भी अज्ञानता के कारण वह अपनी ही हानि करता रहता है
विषयन सेवत हो भले, तिस्ना ते न बुझाइ । ज्यों जल खारी पीव तै, बाढै तिस अधिकाय |४| विषयन सेवत दुख मले, सुष विति हारे जाँन । अस्थि चवत निज रुधिर ते, ज्यों सुख मानत स्वान |६| इन्द्रिय-निग्रह का आधार है मन पर नियंत्रण । मनुष्य इन्द्रिय -लोलुप तभी रहता है, जब उसका मन मतवाले हाथी के समान अंकुश की अवहेलना कर देता है । बनारसीदास का कथन है---
क्यों अंकुस मानें नहीं, महा मत गजराज 1 त्यों मन तिसना में फिरे, गिणे न काज अकाज ॥ १०१ - ज्ञान पच्चीसी
कवि भगवतीदास ने मन के स्वतन्त्र स्वभाव का चित्रण 'मन बत्तीसी' में करते हुए उस पर विवेक का अंकुश लगाये रखने का संकेत दिया हैमन सौं बली न दूसरी, देष्यौ यहि संसारि । तीन लोक मैं फिरत हौ, जाइ न लागे बार 15 मन दासन को दास है, मम भूषन को भूप । मन सब बालन जोग है, मन की कथा अनूप
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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