Book Title: Niti Dharm aur Samaj Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 4
________________ धर्म और समाज भी उनकी शिक्षा समाप्त कर दी जाती है । क्यों कि वह शिक्षा शिक्षा के लिए नहीं दी जाती थी । यही बात कितने ही समाजों के पुनर्विवाह के प्रतिबन्धके विषय में भी देखी जाती है । जिस समाज में पुनर्विवाह नहीं होते उसमें भी अनेक स्त्री-पुरुष ऐसा स्पष्ट माननेवाले होते हैं कि ' बलात्कार से वैधव्य ' धर्म नहीं है, फिर भी यदि उनकी छोटी बहन या पुत्री विधवा हो जाती है तो उसकी इच्छा होनेपर भी उसका पुनर्विवाह कर देने को वे तैयार नहीं होते । प्रायः ऐसा भी होता है कि वे पुनर्विवाह विरुद्ध अनिच्छा से भी चौकी करने लग जाते हैं । बलात्कार से ब्रह्मचर्य की इस नीति के पीछे भय और स्वार्थको छोड़कर अन्य कुछ भी हेतु नहीं होता । गृहस्थकी बात जाने दें । त्यागी या गुरु माने जानेवाले वर्गकी भीतरी बात देखें तो प्रतीत होगा कि उनके भी अधिकांश नीति-नियम और व्यवहार भय या स्वार्थसे प्रेरित होते हैं। किसी त्यागी के शिष्य दुराचारी हो जायें या स्वयं गुरु ही भ्रष्ट हो जाय तो उन शिष्यों का वह गुरु, शिष्यों की वृत्तिमें सुधार हुआ है या नहीं यह बिना देखे ही, उन्हें वेशधारी रखनेका पूर्ण प्रयत्न करेगा। क्यों कि उसे शिष्योंकी भ्रष्टता कारण अपनी प्रतिष्ठा की हानिका भय रहता है । आचार्य के भ्रष्ट होनेपर भी उसके सांप्रदायिक अनुयायी उसे पदभ्रष्ट करने में हिचकिचाते | इतना ही नहीं किन्तु उसपर बलात्कार ब्रह्मचर्य थोप देते हैं । क्यों कि उन्हें अपने संप्रदाय की प्रतिष्ठा की हानिका डर रहता है | पुष्टिमार्गी आचार्यका पुनः पुनः स्नान और जैनधर्मके साधुका सर्वथा अस्नान यह अक्सर सामाजिक भय के कारण ही होता है | मौलवी के गीतापाठमें और पंडित के कुरान पाठ में भी सामाजिक भय ही प्रायः बाधक होता है। इन सामाजिक -नीति-नियमों और रीति- रस्मोंके पीछे प्रायः भय और स्वार्थ ही होते हैं । भय और स्वार्थसे अनुष्ठित नीति-नियम सर्वथा त्याज्य निकम्मे ही हैं या उनके बिना भी चल सकता है, यह प्रतिपादन करनेका यहाँ अभिप्राय नहीं है । यहाँ तो इतना हो बताना अभिप्रेत है कि धर्म और नीतिमें फर्क है । १४ जो बन्धन या कर्तव्य, भय या स्वार्थमूलक होता है, वह है नीति | किन्तु जो कर्तव्य, भय या स्वार्थमूलक न होकर शुद्ध कर्तव्य के तौरपर होता है और जो सिर्फ उसकी योग्यताके ऊपर ही अवलम्वित होता है, वह है धर्म । नीति और धर्म बीचका यह फर्क तुच्छ नहीं हैं। यदि हम तनिक गहराई से सोचें तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9