Book Title: Niti Dharm aur Samaj
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 2
________________ धर्म और समाज "उसका कारण यह है कि मनुष्य में ऐसी बुद्धि-शक्ति और विवेक-शक्तिका बीज है कि वह अपना रहन-सहन, वेश-भूषा, भाषा, खान-पान और अन्य संस्कारों का परिवर्तन कर सकता है, अभ्यास कर सकता है। मनुष्य जब चाहे तब प्रयत्नसे दूसरी भाषा सीख सकता है और अन्य-भाषाभाची लोगों के साथ सरलतासे घुल-मिल जाता है । वेश-भूषा और खान-पान बदल कर या बिना बदले उदारताका अभ्यास करने भिन्न प्रकारके वेश-भूषा और खान-पानवाले मनुष्यों के साथ बस कर सरलतासे जिंदगी बिता सकता है। दूसरोंका जो अच्छा हो उसे लेने में और अपना जो अच्छा हो उसे दूसरों को देनेमें सिर्फ मनुष्य प्राणी ही गौरवका अनुभव करता है । भिन्न देश, भिन्न रंग और भिन्न संस्कारवाली मानव-प्रजाके साथ केवल मनुष्य ही एकता सिद्ध करके उसे विकसित कर सकता है। इसी शक्तिके 'कारण मनुष्य का वर्ग समाज नामके योग्य हुआ है। मनुष्य जहाँ कहीं होगा किसी न किसी समाजका अंग होकर रहेगा। वह 'जिस समाजका अंग होगा उस समाज के ऊपर उसके अच्छे बुरे संस्कारका असर होगा हो । यदि एक मनुष्य वीड़ी पीता होगा तो वह अपने आसपासके लोगों में बीड़ीकी तलप ( तड़प ) जागरित करके उस व्यसनका वातावरण खड़ा करेगा । अफीम खानेवाला चीनी अपने समाजमें उसीकी मचि बढ़ावेगा । यदि कोई वस्तुतः शिक्षित होगा तो वह अपने समाजमें शिक्षाका वातावरण जाने अनजाने खड़ा करेगा । इसी प्रकारसे समस्त समाजमें या उसके अधिकांशमें जो रसूम और संस्कार रूढ़ हो गये होते हैं चाहे वे इष्ट हों या अनिष्ट, उन रस्मों और संस्कारोंसे उस समाजके अंगभून व्यक्ति के लिए मुक्त रहना अशक्य नहीं तो दुःशक्य तो होता ही है । तार या टिकट आफिसमें काम करनेवालोंमें अथवा स्टेशन के कर्मचारियोंके बीच में एकाध व्यक्ति ऐसा जाकर रहे जो रिश्वतसे नफरत करता हो, इतना ही नहीं किन्तु कितनी ही रिश्वतकी लालच उसके सामने क्यों न दिखाई जाय फिर भी जो उसका शिकार बनना न चाहता हो, तो ऐसे सच्चे व्यक्तिको शेष सब रिश्वतखोर वर्गकी ओरसे बड़ा भारी त्रास होगा। क्योंकि वह स्वयं रिश्वत नहीं लेगा, इसका मतलब यह है कि वह स्वभावतः दूसरे रिश्वतखोरोंका विरोध करेगा 'और इसका फल यह होगा कि दूसरे लोग एक साथ इस प्रयत्नमें लग जायेंगे “कि या तो वह रिश्वत ले या उन सबके द्वारा परेशान हो । यदि उक्त सच्चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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