Book Title: Niti Dharm aur Samaj Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 7
________________ नीति, धर्म और समाज ૭ इसका उत्तर स्पष्ट है और वह यह कि विश्वमें ऐसा एक भी पंथ, संप्रदाय या धर्म नहीं जिसने मात्र धर्मका ही आचरण किया हो और उसके द्वारा समाजकी केवल शुद्धि ही की हो । यदि कोई संप्रदाय या पंथ अपने में होनेवाली कुछ सत्यनिष्ठ धार्मिक व्यक्तियोंका निर्देश करके समाजकी शुद्धि सिद्ध करने का दावा करता है तो वैसा दावा दूसरा विरोधी पंथ भी कर सकता है । क्योंकि प्रत्येक पथमें कम या अधिक संख्यक ऐसे सच्चे त्यागी व्यक्तियों के होनेका इतिहास हमारे समक्ष मौजूद है । धर्मके तथाकथित बाह्यरूपों के आधारसे ही समाजको माप कर किसी पंथको धार्मिक होनेका प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता । क्योंकि बाह्य रूपोंमें परस्पर इतना विरोध होता है कि यदि उसीके आधारसे धार्मिकताका प्रमाणपत्र दे दिया जाय तो या तो सभी पंथोंको धार्मिक कहना होगा या सभीको अधार्मिक । उदाहरण के तौरपर कोई पंथ मंदिर और मूर्तिपूजा के अपने प्रचारका निर्देश करके ऐसा कहे कि उसने उसके प्रचारके द्वारा जनसमाजको ईश्वरको पहचानने में या उसकी उपासना में पर्याप्त सहायता देकर समाज में शुद्धि सिद्ध की है, तो इसके विपरीत उसका विरोधी दूसरा पंथ यह कहनेके लिए तैयार है कि उसने भी मंदिर और मूर्तिके ध्वंसके द्वारा समाजमें शुद्धि सिद्ध की है । क्योंकि मंदिर और मूर्तियों को लेकर जो बहमोंका साम्राज्य, आलस्य और दंभकी वृद्धि हो रही थी उसे मंदिर और मूर्तिका विरोध करके कुछ मात्रा में रोक दिया गया है । एक पंथ जो तीर्थस्थानकी महिमा गाता और बढ़ाता हो वह शारीरिक शुद्धिद्वारा मानसिक शुद्धि होती है, ऐसी दलीलके सहारे अपनी प्रवृत्तिको समाज - कल्याणकारी सिद्ध कर सकता है, जब कि उसका विरोधी दूसरा पंथ स्नान- नियन्त्रण के अपने कार्यको समाज कल्याणकारी साबित करने के लिए ऐसी दलील दे सकता है कि बाह्य स्नानके महत्त्व में फँसनेवाले लोगों को उस रास्ते से हटाकर आन्तरिक शुद्धिकी ओर ले जानेके लिए स्नानका नियन्त्रण करना हो हितावह है । एक पंथ कंठी बँधाकर और दूसरा उसे तुड़वाकर समाजकल्याणका दावा कर सकता है । इस तरह धर्मके बाह्य रूपके आधारपर जो प्रायः परस्पर विरोधी होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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