Book Title: Nirgrantha Sampradaya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ ५४ जैन धर्म और दर्शन लगीं। शुरू में प्रो० लासेन ने लिखा कि 'बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति हैं क्योंकि जैन और बुद्ध-परम्परा की मान्यताओं में अनेकविध समानता है।' थोडे वर्षों के बाद अधिक साधनों की उपलब्धि तथा अध्ययन के बल पर प्रो० वेवर आदि विद्वानों ने यह मत प्रकट किया कि 'जैनधर्म बौद्धधर्म की एक शाखा है। वह उससे स्वतंत्र नहीं है।' आगे जाकर विशेष साधनों की उपलब्धि और विशेष परीक्षा के बल पर प्रो० याकोबी ने उपर्युक्त दोनों मतों का निराकरण करके यह स्थापित किया कि 'जैन और बौद्ध सम्प्रदाय दोनों स्वतन्त्र हैं इतना ही नहीं बल्कि जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय से पुराना भी है और ज्ञातपुत्र महावीर तो उस सम्प्रदाय के अंतिम पुरस्कर्ता मात्र हैं।' करीब सवा सौ वर्ष जितने परिमित काल में एक ही मुद्दे पर ऐतिहासिकों की राय बदलती रही। पर इस बीच में किसी जैन ने अपनी यथार्थ बात को भी उस ऐतिहासिक ढंग से दुनिया के समक्ष न रखा जिस ढंग से प्रो० याकोबी ने अंत में रखा। याकोबी के निकट अधिकतर साधन वे ही थे जो प्रत्येक जैन विद्वान् के पास अनायास ही उपलब्ध रहते हैं। याकोबी ने केवल यही किया कि जैन ग्रन्थों में आने वाली हकीकतों का बौद्ध आदि वाङ्मय में वर्णित हकीकतों के साथ मिलान करके ऐतिहासिक दृष्टि से परीक्षा की और अंत में जैनसम्प्रदाय की मान्यता की सचाई पर मुहर लगा दी। जो बात हम जैन लोग मानते थे उसमें याकोबी ने कोई वृद्धि नहीं की फिर भी जैन सम्प्रदाय की बौद्ध सम्प्रदाय से प्राचीनता और भगवान महावीर का तथागत बुद्ध की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यक्तित्व इन दो मुद्दों पर हमारे साम्प्रदायिक जैन विद्वानों के अभिप्राय का वह सार्वजनिक मूल्य नहीं है जो याकोबी के अभिप्राय का है। पाठक इस अंतर का रहस्य स्वयमेव समझ सकते हैं कि याकोबी उपलब्ध ऐतिहासिक साधनों के बलाबल की परीक्षा करके कहते हैं जब कि साम्प्रदायिक जैन विद्वान् केवल साम्प्रदायिक मान्यता को किसी भी प्रकार की परीक्षा निना किए ही प्रकट करते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सार्वजनिक मानस परीक्षित सत्य को जितना मानता है उतना अपरीक्षित सत्य को नहीं मानता । इसलिए हम इस लेख में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय से संबन्ध रखने वाली कुछ बातों पर ऐतिहासिक परीक्षा के द्वारा प्रकाश डालना चाहते हैं, जिससे पाठक यह जान सकेंगे कि निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के बारे में जो मन्तव्य जैन सम्प्रदाय में प्रचलित हैं वे कहाँ तक सत्य हैं और उन्हें कितना ऐतिहासिक आधार है । ३. S. B. E. Vol. 22 Introduction P. 19 ४. वही P. 18 ५. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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