Book Title: Nirgrantha Sampradaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ जैन धर्म और दर्शन दूसरा - बौद्ध संप्रदाय के स्थापक गौतम बुद्ध तथा निर्ग्रन्थ संप्रदाय के अन्तिमपुरस्कर्ता ज्ञातपुत्र महावीर दोनों समकालीन थे । वे केवल समकालीन ही नहीं बल्कि समान या एक ही क्षेत्र में जीवन-यापन करनेवाले रहे। दोनों की प्रवृत्ति का धाम एक प्रदेश ही नहीं बल्कि एक ही शहर, एक ही मुहल्ला, और एक ही कुटुम्ब भी रहा। दोनों के अनुयायी भी आपस में मिलते और अपने-अपने पूज्य पुरुष के उपदेशों तथा श्राचारों पर मित्रभाव से या प्रतिस्पर्द्धिभाव से चर्चा भी करते थे | इतना ही नहीं बल्कि अनेक अनुयायी ऐसे भी हुए जो दोनों महापुरुषों को समान भाव से मानते थे । कुछ ऐसे भी अनुयायी थे जो पहले किसी एक के अनु थायी रहे पर बाद में दूसरे के अनुयायी हुए, मानों महावीर और बुद्ध के अनुयायी ऐसे पड़ौसी या ऐसे कुटुम्बी थे जिनका सामाजिक संबन्ध बहुत निकट का था । कहना तो ऐसा चाहिए कि मानों एक ही कुटुम्ब के अनेक सदस्य भिन्न-भिन्न मान्यताएँ रखते थे जैसे आज भी देखे जाते हैं । " ५६ तीसरा --- निग्रन्थ संप्रदाय की अनेक बातों का बुद्ध ने तथा उनके समकालीन शिष्यों ने आँखों देखा-सा वर्णन किया है, भले ही वह खण्डनदृष्टि से किया हो या प्रासंगिक रूप से । ७ जो बुद्ध के या उनके संग्रहमात्र हैं। आगे बौद्ध-पिटकों के जिस-जिस भाग में निग्रन्थ संप्रदाय से संबन्ध रखनेवाली बात का निर्देश है वह सब भाग खुद बुद्ध का साक्षात् शब्द है ऐसा माना नहीं जा सकता, फिर भी ऐसे भागों में अमुक अंश ऐसा अवश्य हैं समकालीन शिष्यों के या तो शब्द हैं या उनके निजी भावों के बौद्ध भिक्षुओं ने जो निग्रन्थ संप्रदाय के भिन्न-भिन्न श्राचारों या मंतव्यों पर टीका या समालोचना जारी रखी है वह दर असल कोई नई वस्तु न होकर तथागत बुद्ध की निग्रन्थ आचार-विचार के प्रति जो दृष्टि थी उसका नाना रूप में विस्तार मात्र है । खुद बुद्ध द्वारा की हुई निग्रन्थ सम्प्रदाय की समालोचना समकालीन और उत्तरकालीन भिक्षुओं के सामने न होती तो वे निग्रन्थि संप्रदाय के भिन्न-भिन्न पहलुनों के ऊपर पुनरुक्ति का और पिष्टपेषण का भय बना रखे इतना अधिक विस्तार चालू न रखते । उपलब्ध बौद्ध पिटक का बहुत बड़ा हिस्सा अशोक के समय तक में सुनिश्चित और स्थिर हो गया माना जाता है । बुद्ध के जीवन से लेकर अशोक के समय तक के करीब ढाई सौ वर्ष में बौद्ध पिटकों का उपलब्ध स्वरूप और परिमाण रचित, ग्रथित और संकलित हुआ । इन ढाई सौ वर्षों के दरम्यान नए-नए ६. उपासकदशांग श्र० ८ । इत्यादि. ७ मज्झिमनिकाय - सुन्त १४, ५६ । दीघनिकाय सुत्त २६, ३३/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10