Book Title: Nirgrantha Sampradaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 8
________________ निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय ५७ स्तर आते गए हैं। पर उनमें बुद्ध के समकालीन पुराने स्तर–चाहे भाषा और रचना के परिवर्तन के साथ ही सही भी अवश्य हैं। आगे के स्तर बहुधा पुराने स्तरों के दाँचे और पुराने स्तरों के विषयों पर ही बनते और बढ़ते गए हैं। इसलिए बौद्ध पिटकों में पाया जानेवाला निर्ग्रन्थ संप्रदाय के आचार-विचार का निर्देश ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है। फिर हम जब बौद्ध फिरकागत निग्रन्थ संप्रदाय के निर्देशों को खुद निम्रन्थ प्रवचन रूप से उपलब्ध श्रागमिक साहित्य के निर्देशों के साथ शब्द और भाव की दृष्टि से मिलाते हैं तो इसमें संदेह नहीं रह जाता कि दोनों निर्देश प्रमाणभूत हैं; भले ही दोनों बाजुओं में वादि-प्रतिवादि भाव रहा हो । जैसे बौद्ध पिटकों की रचना और संकलना की स्थिति है करीब-करीब वैसी ही स्थिति प्राचीन निग्रन्थ आगमों की है। बुद्ध और महावीर बुद्ध और महावीर समकालीन थे। दोनों श्रमण संप्रदाय के समर्थक थे, फिर भी दोनों का अंतर बिना जाने हम किसी नतीजे पर पहुँच नहीं सकते । पहला अंतर तो यह है कि बुद्धने महाभिनिष्क्रमण से लेकर अपना नया मार्ग-धर्मचक्रप्रवर्तन किया, तब तक के छः वर्षों में उस समय प्रचलित भिन्न-भिन्न तपस्वी और योगी संप्रदायों को एक-एक करके स्वीकार-परित्याग किया। और अन्त में अपने अनुभव के बल पर नया ही मार्ग प्रस्थापित किया । जब कि महावीर को कुल परंपरा से जो धर्ममार्ग प्राप्त था उसको स्वीकार करके वे आगे बढ़े और उस कुलधर्म में अपनी सूझ और शक्ति के अनुसार सुधार या शुद्धि की। एक का माग पुराने पंथों के त्याग के बाद नया धर्म-स्थापन था तो दूसरे का मार्ग कुलधर्म का संशोधन मात्र था । इसीलिए हम देखते हैं कि बुद्ध जगह-जगह पूर्व स्वीकृत ओर अस्वीकृत अनेक पंथों की समालोचना करते हैं और कहते हैं कि अमुक पंथ का अमुक नायक अमुक मानता है, दूसरा अमुक मानता है पर मैं इसमें सम्मत नहीं, मैं तो ऐसा मानता हूँ इत्यादि बुद्ध ने पिटक भर में ऐसा कहीं नहीं कहा कि मैं जो कहता हूँ वह मात्र पुराना है, मैं तो उसका प्रचारक मात्र हूँ । बुद्ध के सारे कथन के पीछे एक ही भाव है और वह यह है कि मेरा मार्ग खुद अपनी खोज का फल है । जब कि महावीर ऐसा नहीं कहते। क्योंकि एक बार पाश्र्थापत्यिकों ने महावीर से कुछ प्रश्न किए तो उन्होंने पापित्यिकों को पार्श्वनाथ के ही वचन की साक्षी देकर अपने पक्ष में किया है। यही समय है कि बुद्ध ने अपने मत के साथ दूसरे ८. मझिम० ५६ । अंगुत्तर Vol. I. P. 206 Vol. III P. 883 ६. भगवती ५. ६. २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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