Book Title: Nirgrantha Sampradaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 4
________________ निर्मन्थ-सम्प्रदाय ५.३ दिलों को एक दूसरे से दूर रखते हैं उनका सरलता से नाश करके दिलों की खाई पाटने का एक मात्र साधन ऐतिहासिक दृष्टि का उपयोग है । इस कारण से यहाँ हम निर्ग्रन्थ संप्रदाय से संबंध रखने वाली कुछ बातों की ऐतिहासिक दृष्टि से जांच करके उनका ऐतिहासिक मूल्य प्रकट करना चाहते हैं । I जिन इने-गिने मुद्दों और प्रश्नों के बारे में जैन- सम्प्रदाय को पहले कभी संदेह न था उन प्रश्नों के बारे में विदेशी विद्वानों की रायने केवल औरों के दिल में ही नहीं बल्कि परंपरागत जैन संस्कारवालों के दिल में भी थोड़ा बहुत संदेह पैदा कर दिया था । यहाँ हमें यह विचार करना चाहिए कि आखिर में ऐसा होता क्यों है ? विदेशी विद्वान् एक अंत पर थे तो हम दूसरे अंत पर थे । विदेशी विद्वानों की संशोधक वृत्ति और सत्य दृष्टि ने नवयुग पर इतना प्रभाव जमा दिया था कि कोई उनकी राय के खिलाफ बलपूर्वक और दलील के साथ अपना मत प्रतिपादित नहीं कर सकता था । हमारे पास अपनी मान्यता के पोषक अकाट्य ऐतिहासिक साधन होते हुए भी हम न साधनों का अपने पक्ष में यथार्थ रूप से पूरा उपयोग करना जानते न थे । इसलिए हमारे सामने शुरू में दो ही रास्ते थे । या तो हम विदेशी विद्वानों की राय को बिना दलील किए झूठ कह कर श्रमान्य करें, या अपने पक्ष की दलील के अभाव से ऐतिहासिकों की वैज्ञानिक दृष्टि के प्रभाव में आकर हम अपनी सत्य बात को भी नासमझी से छोड़कर विदेशी विद्वानों की खोजों को मान लें | हमारे पास परम्परा के संस्कारों के अलावा अपनी-अपनी मान्यता के समर्थक अनेक ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद थे। हम केवल उनका उपयोग करना नहीं जानते थे । जब कि विदेशी विद्वान् ऐतिहासिक साधनों का उपयोग करना तो जानते थे पर शुरू-शुरू में उनके पास ऐतिहासिक सावन पूरे न थे। इसलिए अधूरे साधनों से वे किसी बात पर एक निर्णय प्रकट करते थे तो हम साधनों के होते हुए भी उनका उपयोग बिना किए ही बिलकुल उस बात पर विरोधी निर्णय रखते थे । इस तरह एक ही बात पर या एक ही मुद्दे पर दो परस्पर विरोधी निर्णयों के सामने आने से नवयुग का व्यक्ति अपने आप संदेहशील हो जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हम उपर्युक्त विचार को एक ग्राम उदाहरण से समझाने की चेष्टा करते हैं । ऐतिहासिक दृष्टि का मूल्याङ्कन जैन-परम्परा, बौद्ध परम्परा से पुरानी है और उसके अंतिम पुरस्कता महावीर बुद्ध से भिन्न व्यक्ति हैं इस विषय में किसी भी जैन व्यक्ति को कभी संदेह न था । ऐसी सत्य और संदिग्ध वस्तु के खिलाफ भी विदेशी विद्वानों की रायें प्रकट होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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