Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab

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Page 9
________________ जैन-धर्म-दिवाकर जैनागम-रत्नाकर परम श्रद्धेय आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज जीवन-सागर की कुछ लहरियां जैन-धर्म-दिवाकर जैनागम-रत्नाकर आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज चतुर्विध संघ के अग्रगण्य यशस्वी अनुशास्ता थे। जिन महापुरुषों का जीवन संयम और संघ-सेवा की दृष्टि से आदर्श हो, ऐसे महापुरुष ही समाज के लिये अनुशासन के अधिकारी होते हैं। आचार्य श्री का संयममय जीवन कितना उच्च था-महान था ? उन्होंने कितने शान्ति-प्रिय रह कर समाज पर अनुशासन किया, इसे वे श्रद्धालु श्रावक ही जान सकते हैं जिन्हें उनके पावन सान्निध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो। यद्यपि विद्वत्ता उनका जन्म-सिद्ध स्वाभाविक गुण था, तथापि उनके उस गुण को उनके संयम और उनकी स्वाध्याय-निष्ठा रूप गुण ही प्रकाशित कर पाये हैं । साधु के जीवन में अन्य समस्त गुणों की अपेक्षा संयम का ही प्राधान्य रहता है। संयम का अर्थ है सम्यक् प्रकार से आत्मा को नियन्त्रित कर विकृतियों की ओर जाने से रोकना। आचार्य श्री जी स्वाध्याय तपस्वी होने के साथ-साथ महान संयमी श्रमण-श्रेष्ठ थे। आचार्य के आठ गुणों में एक गुण है शरीर-सम्पदा। प्राचार्य देव का शरीर रूपी पुष्प वहां द्रष्टव्य एवं सुन्दर था, वहां वह संयम की सुगन्ध से भी इतना परिपूर्ण था कि उनके पावन सानिध्य में आने वाला हर व्यक्ति संयम की सुगन्ध से परिपूर्ण हो जाता था। . । उनके दर्शन करते ही महान निर्ग्रन्थ अनाथी मूनि की स्मृतियां मस्तिष्क के पटल पर उभर भाती थीं। उनका शरीर-वैभव और संयम-वैभव दोनों मिलकर उन्हें पूर्ण-पुरुष के रूप में प्रत्यक्ष कर देते थे। ____ आचार्य देव बाह्य तप की अपेक्षा अन्तरंग तप को अधिक महत्व देते थे। अनुशास्ता होते हुए भी वे संघ-सेवा को महत्वपूर्ण मानते थे, अतः वे समाज के लिये हरमन - प्यारे हो गये थे। उनकी वाणी में माधुर्य का ऐसा गहन सागर था जिसमें सभी को प्रिय लगने वाले रत्न ही प्राप्त होते थे। आप जैन एकता के प्रतीक थे, जो भी उनके चरणों में बैठता, वह आगम-ज्ञान सबको बहर्ष प्रदान करते थे। [ एक!

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