Book Title: Neminath Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 401
________________ 392 * द्रोपदी-हरण रानी होना पसन्द करती हूँ, मुझे यह दासता नहीं चाहिए।" कृष्ण ने कहा—“बेटी ! अब मैं क्या कर सकता हूँ ? तुम तो अब वीर ... के अधिकार में हो।" केतुमति ने कहा-“पिताजी! आप सब कुछ कर सकते हैं। जैसे भी हो मुझे इस दुःख से छुड़ाइए!" __केतुमंजरी की यह प्रार्थना सुनकर कृष्ण को उस पर दया आ गयी। इसलिए उन्होंने वीर को समझाकर, उसे नेमिभगवान के निकट दीक्षा दिलवा एकबार कृष्ण अपने परिवार के साथ समस्त मुनियों को द्वादशावर्त्तवन्दना करने लगे। उस समय समस्त राजा थककर बीच ही में बैठ गये, परन्तु कृष्ण की भक्ति और कृपा के कारण वीर को थकावट न मालूम हुई और उसने. भी कृष्ण की भांति द्वादशावर्त वन्दना में सफलता प्राप्त की। वन्दना पूरी होने पर कृष्ण ने भगवान से कहा- "भगवान् ! तीन सौ साठ संग्राम करने पर मुझे जितनी थकावट न मालूम हुई थी, उतनी यह वन्दना करने पर मालूम होती है!" . कृष्ण का यह वचन सुनकर भगवान ने कहा-“तुमने आज बहुत पुण्य प्राप्त किया है और क्षायिक सम्यक्त्व तथा तीर्थकर नामकर्म भी उपार्जन किया है। अब तक तुम्हारी आयु सातवें नरक के योग्य थी, परन्तु आज से वह घटकर तीसरे नरक के योग्य हो गयी हैं। इसी पुण्य के प्रभाव से तुम अन्त में तीर्थकर नामकर्म निकाचित भी कर सकोगे।" कृष्ण ने आनन्दित होकर कहा-“हे नाथ! यदि ऐसी ही बात है, तो एकबार मैं पुन: वन्दना करूंगा, जिससे मेरी नरकायु समूल नष्ट हो जाय।" भगवान ने कहा-“अब तो तुम्हारी यह वन्दना द्रव्य वन्दना हो जायगी और फल तो भाव वन्दना से ही प्राप्त होता है।" यह सुनकर कृष्ण ने वैसा करने का विचार छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने वीर की वन्दना का फल पूछा। इस पर भगवान ने कहा—“उसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434