Book Title: Neminath Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ 406 द्वारिका दहन और कृष्ण का देहान्त उसकी यह बातें सुनकर वसुदेव और देवकी आदि ने जीवन की आशा छोड़कर, कृष्ण तथा बलराम से कहा - " हे वत्स ! तुम दोनों अब अपनी प्राण रक्षा करो। तुम दोनों के जीवन समस्त यादवों के जीवन की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं। तुमने हमारे प्राण बचाने के लिए यथेष्ट चेष्टा की, किन्तु भावी को कौन टाल सकता है ? हमें हम लोगों का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए, जो हम लोगों ने नेमि भगवान के निकट दीक्षा नहीं ली। तुम लोग खुशी से जाओ, हम लोग अब अपने कर्म का फल यहीं पर भोगेंगे ?” माता पिता के यह वचन सुनकर कृष्ण और बलराम का शोकसागर और भी उमड़ पड़ा। वे वहीं खड़े होकर दोनों नेत्रों से अश्रुधारा बहाने लगे। किन्तु वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने उनकी ओर ध्यान न देकर कहा – “अब हम त्रिजगत के गुरु नेमिनाथ की शरण स्वीकार करते हैं । हमने इसी समय चतुर्विध, आहार का प्रत्याख्यान किया। हम लोग अरिहंत, सिद्ध, साधु और आर्हत् धर्म . की शरण में हैं, अब इस संसार में हमारा कोई नहीं और हम किसी के नहीं ।" इस प्रकार आराधना कर वे सब नमस्कार मन्त्र का स्मरण करने लगे । यह देख, द्वैपायन ने उन तीनों पर मेघ की भांति अग्नि वर्षा की, जिससे मृत्यु प्राप्त कर, वे स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गये । अब कृष्ण और बलराम के दुःख का वारापार न रहा। वे दोनों नगर के बाहर एक पुराने बाग में गये। वहां से वे दोनों जलती हुई नगरी का हृदय भेदक दृश्य 'देखने लगे। उस समय माणिक्य की दीवालें पाषाण के टुकड़ों की तरह चूर्ण हो रही थी, गोशीर्षचन्दन के मनोहर स्तम्भ धांय धांय जल रहे थे, किले के कंगूरे भयंकर शब्द के साथ टूट-टूटकर गिर रहे थे, बड़े-बड़े मन्दिर और प्रसाद भस्म हो होकर मिट्टी में मिल रहे थे, चारों ओर अग्नि की भयंकर लपटों के सिवाय और कुछ भी दिखायी न देता था । प्रलयकाल के समुद्र की भांति उस समय समूचे नगर पर अग्नि की लपटें हिलोरें मार रही थी । द्वारिका नगरी के समस्त लोग अपनी समस्त सम्पत्ति के साथ उसीमें विलीन हो रहे थे। उस समय उनका चीत्कार सुनने वाला या उनके प्रति सहानुभूति दिखाने वाला कोई भी न था । नगर और नगरनिवासियों की यह अवस्था देखकर कृष्ण का हृदय "

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434