Book Title: Navtattva Chopai
Author(s): Diptipragnashreeji
Publisher: ZZ_Anusandhan
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डिसेम्बर २०११
बीजी अशरण भावना लही मरण शरण को केहनइं ४९नहीं चउद राज ५°रडवड्यो संसार त्रीजी जीव न पाम्यो पार ॥२०॥ चोथी एकत्व भावना कहई मली मेलावो सहु को रहइं एकलो मात ऊदरि अवतरई एकलो इंहां थको पणि मरइ ॥२१॥ जीव अन्यनइं काया अन्य पांचमी अन्यत्व भावना धन्य कहि मेल्युं कोइ खाइं डोकरना घेवर परि थाय ॥२२॥ छट्ठी अशुचि भावना एह अपवित्र सात धातमइं देह सातमी आश्रव भावना जीव करइ मिथ्यात अविरति अतीव ॥२३॥ आठमी संवर भावना कहइं५१ समकित विरति शुभ ध्यानइ रहइं पूर्वकर्म संवरें नवा न बंधाइं इम चिंतवता संवर थाइं ॥२४॥ नवमी निर्जर भावना तपतेग नारकी प्रमुख दुख साहइं अनेक छट्ठ अट्ठम आतपन धरई तो घणां कर्मनो क्षय इम करई ॥२५॥ दशमी धर्मभावना कही संसार तारण श्री जिनधर्म सही लोक राज छे चउद प्रमाण सात हेठां सात उपरि जाणि ॥२६॥ सिद्धसिलां तिहां सिद्ध संठवइं इत्यादि लोकस्वरूप चिंतविं लोकभावना ए इग्यांरमी हवइं बोधिदुर्लभभावना बारमी ॥२७॥ ए श्रीसर्वज्ञ धर्मनुं लहिअQ वली समकित दोहिलं पामवं हवई चारित्र वखाणुं पंच प्रथम सामाय चारित्रं संच ॥२८॥ धर्मव्यापार टाली अन्य वृथा सावध व्यापार नियम ल्ये यथा छेदोपस्थाव बीजुं चारित्र भरत अनें वली ऐरवत क्षेत्र ॥२९॥ प्रथम चरम तीर्थंकर बार दीक्षा दीधा पूठिं धारिं । जो षट जीव ओलखतओ होइ तो माहाव्रत पांच उचरावई सोय ॥३०॥ परिहारविशुद्धि त्रीजुं ते कहुं तेहना भेद गुरुवचनई लहुं नव जण गच्छथी जूदा रही उपसर्गादि अहिआस्यइं सही ॥३१॥ अढार मास लगई जिस्यो तप कह्यो तिस्यो तप करें मन उमह्यो पछई वली आवई गच्छमां तेह अथवा तेह तप बीजी वार करेह ॥३२॥ सूक्ष्मसंपराय चोथु सुखकार परिणाम शुद्ध अति चोखा सार क्रोध-मान-मायोदय क्षय दोइ अतिसूक्ष्म मात्र लोचन(लोभ)नो जोइं ॥३३॥

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