Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad
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नवस्मरणादिसङ्ग्रहे तौर तरंडक जिम ते वहता, समवसरण पुहता गहगहता। तो अभिमाने गोयम जपे, इणि अवसरे कोपे तणु कंपे ॥१४॥ मूढ लोक अजाणियुं बोले, सुर जाणंता इम कांड डोले । भू आगळ को जाण भणीजे, मेरु अवर किम उपमा दीजे ॥१५॥
(वस्तु छंद ) वीर जिणवर वीर जिणवर, नाणसंपन्न, पावापुरी सुरमहिय, पत्त नाह संसार तारण, तहिं देवेहिं निम्मविय, समवसरण बहुसुखकारण । जिणवर जगउज्जोयकर, तेजे करि दिनकार । सिंहासणे सामिय ठव्यो, हुओ सुजयजयकार ॥१६॥ तो चढियो घण मानगजे, इंदभूइ भूदेव तो, हुंकारो करि संचरीयो, कवण सु जिणवर देव तो । जोजन भूमि समोसरण, पेखवी प्रथमारंभ तो, दह दिसि देखे विबुधवधू, आवंती सुररंभ तो ॥१७॥ मणिमय तोरण दंड धजा, कोसीसे नव घाट तो, वैरविवर्जित जंतुगण, प्रातिहारज आठ तो। सुरनर किन्नर असुरवर, इंद्र इंद्राणी राय तो, चित्ते चमक्किय चिंतवे ए, सेवंता प्रभु पाय तो॥१८॥ सहसकिरण सम वीरजिण, पेखवी रूप विसाळ तो, एह असंभव संभवे ए, साचो ए इंद्रजाळ तो। तो बोलावे त्रिजगगुरु, इंदभूइ नामेण तो, श्रीमुख संशय सामि सवे, फेडे वेदपएण तो ॥१९॥
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