Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad

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Page 244
________________ क्षेमवर्धनकृत मंगलपचीशी। २१. चरम तिर्थकर ए प्रधान, श्रीगोयम वरलब्धिनिधान । सूत्र सिद्धांतमा संख्या एह, चौदसे बावन गुणगेह ॥५॥ बीजो मंगलिकमां निर्गथ, धर्म तणा जे साधे पंथ । सत्तर भेद संयमना पाल, परिषह सहे थई उजमाल ॥६॥ ज्ञानसहित किरिया करे रंग, सत्तावीस गुण धरिया अंग। विषय कषाय तणो परिहार, दोषरहित लिए शुद्ध आहार ॥७॥ बेसी कनककमल विचाल, आगम वयण वदे कृपाल । जंगम तीरथ कहीए एह, पर उपगारी रविशशिमेह ॥८॥ एवा गुरु सेवो थई सावधान, तारण तरण जहाज समान । अढी द्वीपमा जे अणगार, थूलभद्र आदे तेह संभार ॥९॥ मंगलिक चोथो श्री जैनधर्म, तेथी क्षय थाये अष्ट कर्म । धर्मतणा जे चार प्रकार, दान शियळ तप भावना सार ॥१०॥ जैनधर्मनो महीमा घणो, संक्षेपे कहिस्युं ते भवि सुणो । धर्मथकी होय नवे निधान धर्मथकी लहीए बहुमान ॥११॥ धर्मथकी सजनसंयोग, धर्मथकी लहीए बहु भोग। धर्मथकी सवि आरति टले, धर्मथकी मनवंछित फले ॥१२॥ धर्मथकी लखमी अपार, धर्मथकी घर रुडी नार । धर्मथकी सघळे जय वरे, धर्मथकी चिंते ते करे ॥१३॥ धर्मथकी कीर्ति विस्तरे, धर्मथकी आठे भय हरे । मर्मथकी वैरी वश होय, धर्मथको सुखिया सौ होय ॥१४॥ धर्मथकी सुरनर करे सेव, धर्मथकी मंगल नित्यमेव । धर्मथकी सेना चतुरंग, धर्मथकी मंदिर उत्तंग ॥१५॥ . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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