Book Title: Navpad Prakaranam
Author(s): Jinendrasuri, 
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 15
________________ नवपद वृत्ति: मू. देव. वृ. यशो ।। १४ ।। गाथापादः पावोवएस हिंसप्प० पुन्यवस्यहिजेण पोग्गल परिणामं चिं० पोसह ववासो उण फलसंपत्तीवि धुवा बंधवहछविच्छेयं बंधाइ उ आउट्टि बालमरणेहि जीवो बुद्धि पुका भावण तइ तामलिणा भोगुवभोगेहिंतो मइया पुव्वो गह मणवइकायाणं मरणं सत्तरसविहं मलमल मज्जपं मिच्छतकारणाई Jain Educaternational ० अंक पत्रं पृ. ८५ २०८ ६७ १७४ ७९ १९२ १११ २४७ ७१ १७८ २७ ९४ २८ ९५ १३२ २९२ ३५ १०५ ११ ३९ १८५ ७८ 6) ५ ९९ २३९ १३० २९० ८३ २०७ ७६ १८० २० ८२ २ १ १ १२ २ १ १ १ २ १. १ १२ २ २ १ १ २ गाथापादः मिच्छत्तपरिणओ खलु मिच्छत्तस्स गुणोऽयं मुच्छा परिग्गहो इह रागद्दोसवसट्टा लोइयतित्थे उण ण्हाण ० विरतिफलं नाऊणं सच्चित्तं पडिबद्धं सच्चित्ताचित्तोभय० सच्चित्ते निक्खिवणं सम्मपरि अंक पत्रं ६ २५ ७ २७ ५७ १५७ ८७ २१३ १७ ५६ ११३ २४९ ८१ २०५ ४० १०८ सम्मत्तं सुयं तह देस० सम्मत्तस्स गुणोऽयं सव्ववयाण निवित्ति सव्वं चिय सावज्जं सव्वे य सव्वसंगेहि सहसा अब्भक्खाणं संथार थंडिलेविय १०६ २८१ १५ ५१ ९४ २२१ १६ ५२ १०९ २४७ १०१ २४१ ११० २४७ ३६ १०६ ११७ २५८ For Personal & Private Use Only पृ. गाथापादः २ संभरइ वारवारं २ संमत्तं पत्तंपिहु २ संमत्तंमिवि पत्ते १ संलेइणाइ पुव्वं २ संवच्छराइगाहियं २ सामाइयं तु पड़िव० २ सामीजीवादत्तं १ सावज्जज जोगवज्जण० १ साहूण वरं दाणं २ साहूणं जं दाणं १ सिवसग्गपरमकारण १ सुइपाणगाइ अणुस० १ सोऊन अहि १ १ पत्रं पृ. २ अंक ६२ १७१ १९ ८२ ८६ २३ १३१ २९१ १०३ २४३ ९६ २२४ ३९ १०८ ९३ २२० १२३ २६५ १२० २६० ९७ २२९ १३४ ३०४ १२२ २६२ १ १ २ २ १ २ २ मूलगाथा नामका रादि ३ ।। १४ ।। www.jainelibrary.org

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