Book Title: Nari Chetna aur Acharya Hastimalji
Author(s): Anupama Karnavat
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 3
________________ • २२८ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संचार करने हेतु तत्पर हो उठे । प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों से वे इस दिशा में सतत प्रयत्नशील रहे । वे चाहते थे कि स्त्रियों में ज्ञान की ज्योति स्वयं उनके अन्तरमन से प्रकाशित हो। इस हेतु वे स्वाध्याय पर विशेष जोर देते थे । महावीर श्राविका संघ की स्थापना करते समय भी उन्होंने इस प्रवृत्ति को विशिष्ट रूप से संघटन की नियमावली में सम्मिलित किया । प्रात्म-उत्थान के प्रयास में यह प्रवृत्ति बहुत सहायक हो सकती है, ऐसा वे हमेशा मानते थे। वे समाज की नारियों में धर्म व क्रिया का अनुपम संगम चाहते थे । वे कहते थे कि क्रिया के बिना ज्ञान भारभूत है और ज्ञान के बिना क्रिया थोथी है। जिस प्रकार रथ को आगे बढ़ाने के लिए उसके दोनों पहियों का होना आवश्यक है, उसी प्रकार समाज-विकास के रथ में ज्ञान व क्रिया दोनों का होना उसको प्रगति के लिए आवश्यक है, ऐसा उनका अटूट विश्वास था। किन्तु दुर्भाग्यवश ये दोनों (ज्ञान व क्रिया) पृथक् होकर समाज का विभाजन कर चुके थे और समाज की महिलाओं के ऐसे दो वर्गों पर अपना-अपना शासन स्थापित कर रहे थे जो परस्पर बिल्कुल विपरीत और पृथक् थे, नदी के दो किनारों की भांति, जिनके मिलन के अभाव में समाज का ह्रास हो रहा था। ___ एक ओर थी आधुनिक काल की वे युवतियाँ जो तथाकथित उच्च शिक्षा की प्राप्ति कर धर्म को जड़ता का प्रतीक मानती थीं। मात्र भौतिक ज्ञान की प्राप्ति से वे गौरवान्वित थीं। बड़ी-बड़ी पुस्तकों का अध्ययन कर, डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर वे विदुषी तो कहलाती थीं किन्तु ज्ञानी नहीं बन पाती थीं। धर्म का तात्पर्य उनके लिए मात्र शब्दकोषों में सिमट कर रह गया था। वह पिछड़ेपन की निशानी व भावी प्रगति में बाधक माना जाता था। नाना प्रकार की धार्मिक क्रियाएँ उनके लिए व्यंग्य का विषय थीं। ऐसी स्त्रियों में आचार्यश्री ने धर्म का बीज वपन किया। उन्होंने अपनी प्रेरणा से उनके ज्ञान के साथ धर्म व क्रिया को सम्बद्ध किया, यह कहते हुए कि क्रिया व ज्ञान के समन्वय से ही धर्म फलीभूत होता है । उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी व अपने जीवन-चरित्र के माध्यम से उन युवतियों में अध्यात्म का इस प्रकार संचार किया कि वे युवतियाँ जो कभी धर्म को हेय दृष्टि से देखा करती थीं, अब उसी धर्म को अपना मानने में, स्वीकार करने में गौरव की अनुभूति करने लगीं। अतीत के कल्पनातीत दृष्टान्तों द्वारा प्राचार्य प्रवर के माध्यम से प्रेरणा पाकर धर्म के प्रति उनकी रुचि इतनी तीव्र हो गई कि वे धार्मिक क्रियाएँ जैसे सामायिक, प्रतिक्रमण, माला इत्यादि, जो उनकी दृष्टि में मात्र समय के अपव्यय की कारक थीं, अब उनके जीवन के साथ घनिष्ठता से जुड़ गईं और उन्हीं में अब उन्हें आत्म-उत्थान का मार्ग दृष्टिगत होने लगा । उनके जीवन का रुख अब बदल चुका था और वे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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