Book Title: Nari Chetna aur Acharya Hastimalji Author(s): Anupama Karnavat Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 6
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • २३१ अपरिमित रूप से जब विस्तृत कर देते हैं तो फिर उनका अतिक्रमण किसलिए? अतः आचार्यश्री यही कहा करते थे कि यदि प्रत्येक नारी अपने परिवार को सुसंस्कारों व स्वस्थ विचारों का पोषण प्रदान करे तो निश्चय ही उनसे जुड़कर बनने वाला समाज भी स्वतः ही धर्मोन्मुख होगा और तब उसमें संस्कारों को दवा रूप में बाहर से भेजने की आवश्यकता का कहीं अस्तित्व नहीं होगा। किन्तु इन सीमाओं से प्राचार्यश्री का तात्पर्य नारी को उदासीन या तटस्थ बनाने का नहीं था। वे तो स्त्रियों को स्वावलम्बन की शिक्षा देना चाहते थे ताकि वे अपने शोषण के विरुद्ध आवाज उठा सकें । तत्कालीन विधवा समाज सुधार में उनका योगदान प्रेरणास्पद था। उस समय विधवानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय व शोचनीय थी। वे समाज का वो उपेक्षित अंग थी जिन्हें घुटन भरी श्वासों का अधिकार भी दान में मिलता था। उनके लिए रोशनी की कोई किरण बाकी नहीं रह जाती थी और यहाँ तक कि वे स्वयं भी इसी जीवन को अपनी बदनसीबी व नियति मानकर संकीर्णता की परिधि में कैद हो जाती थीं। आचार्यश्री ने उन्हें इस चिन्ताजनक स्थिति से उबारा । उन्होंने उन्हें जीवन की सार्थकता समझाकर उनमें नवीन प्रात्म-विश्वास का संचार किया व उन्हें अनेक रचनात्मक भावनाएँ व सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ प्रदान की जिससे वे भी ऊपर उठकर समाज निर्माण में एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह कर सकें । यह उन्हीं की प्रेरणा का फल है कि आज अनेकानेक विधवाएँ संकीर्णता के दायरे से निकल कर मजबूती के साथ धर्म-कार्य में संलग्न हैं व अन्य नारियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनी प्राचार्यश्री की इस प्रवत्ति से सती-प्रथा विरोधी आन्दोलन को भी बल मिला। उन्होंने विधवाओं को सम्मानजनक स्थिति प्रदान कर सती-प्रथा का भी विरोध किया। वे शुभ कर्मों से मिले दुर्लभ मानव-जीवन को समय से पूर्व ही स्वत: होम करने के पक्षधर नहीं थे। जिस प्रकार मनुष्य जन्म का निर्धारण हमारे हाथ में नहीं, उसी भाँति उसके अन्त को भी वे हमारे अधिकार क्षेत्र से परे मानते थे । वे इसे कायरता का प्रतीक मानकर इसके स्थान पर शरीर को धर्म-साधना में समर्पित कर देना बेहतर मानते थे। उन्होंने अन्य कई नारी विरोधी कुरीतियों के उन्मूलन पर बल दिया। विशेषत: वे दहेज प्रथा के विरुद्ध अक्सर प्रयत्नरत रहते थे । दहेज प्रथा को वे समाज का कोढ़ मानते थे जो समाज को अपंग, नाकारा एवं विकृत बनाये दे रही थी। इस दावानल की भीषण लपटें निरन्तर विकराल रूप धारण करती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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