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गुरु परंपरा
टीकाकार श्री अभयदेवसूरि हुए। आप भारी विद्वान् व महाप्रभावक थे। आप कोढ रोग से प्रपीडित थे। शासनदेवी के आदेश से गुजरात में खंभात के पास स्तंभनपुर (वर्तमान थांभणा ग्राम) के बाहर सेढी नदी के तट पर "जय निह अण" स्तोत्र की तत्क्षण रचना कर पार्श्वनाथ भगवान् की स्तवना की। स्तोत्र पूर्ण होने के पूर्व ही प्रभु श्री स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई । उन्ही प्रभुजी के स्नात्र जल से आपका कोढ रोग मिटकर देह स्वर्णतुल्य बन गइ । वि. सं. ११२० से ११३५ तक में आपने श्रीठाणांग, समवायांग, भगवती सूत्र, आदि ९ अंग सूत्रों की व उववाइ (औपपातिक) उपांग सूत्र एवं पंचाशक प्रकरण की टीकाएं रची तथा नवतत्व भाष्य, पंच निर्ग्रन्थी प्रकरण, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, आगम अष्टोत्तरी आदि अनेकों ग्रन्थ स्वतंत्र बनाये।
श्री अभयदेवसूरि की पाट पर (४३) आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि आये। आप पहले चैत्यवासी व कुर्चपुरगच्छीय आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। आप का नाम जिनवल्लभ था। अपनी कुशाग्र बुद्धि से आपने अल्प आयु में ही पाणिनीय आदि आठों व्याकरण, न्याय, कोष, अलंकारशास्त्र आदि अनेक विषयों का गहन अध्ययन कर उच्च योग्यता संपादन करली थी। जैनागमों व विविध शास्त्रों का अभ्यास करने के लिये आप के गुरुने आप को पूज्य श्री अभयदेवसूरिजी के पास भेजा। आप में योग्यताथी, अभ्यास की लगन थी, व विनय भरी नम्रता थी। श्री अभयदेवसूरिने बड़े चावसे आप को समग्र आगम शास्त्रों का अध्ययन करवा दिया।
श्री अभयदेवसूरि के भक्तों में अक महान् ज्योतिषी विद्वान
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