Book Title: Marudhar aur Malva ke Panch Tirth
Author(s): Devendravijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 5
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाम्'संवच्छुभे त्रयस्त्रिंशन्नन्दैकविक्रमाद्वरे। भगवान् की प्रतिमा वि.सं. १९२८ मग. सु. पूर्णिमा को सवा माघमासे सिते पक्षे, चंद्रे प्रतिपदातिथौ।।१।। प्रहर दिन चढ़े पुरानी गोरवड़ावाव से निकली थी। यह श्री पार्श्वनाथ जालंधरे गढे श्रीमान्, श्रीयशस्वन्तसिंहराट्। प्रतिमा सं. १०२२ फा. सु. ५ गुरुवार को श्री श्रीबप्पभट्टीसूरिजी तेजसाधुमणिः साक्षात्, खण्डयामास यो रिपून्।।२।। के करकमलों से प्रतिष्ठित है। विजयसिंहश्च किल्लादार धर्मी महाबली। इस प्रतिमा को वि.सं. १९५० माह वदि २ सोमवार को तस्मिन्नवसरे संघर्जीर्णोद्धारश्चः कारितः।।३।। महोत्सवपूर्वक श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने प्रतिष्ठित चैत्यं चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम्। एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि, प्रतिष्ठा कारिता वरा।।४।। किया था। ओशवंशे निहालस्य, चोधरी कानुगस्य च। इस स्थल के तुंगीयापुर, तुंगीयापत्तन और तारन (तालन) सुत प्रतापमल्लेन प्रतिमा स्थापिता शुभा।।५।। पुर ये तीन नाम हैं। श्रीऋषभजिनप्रासादात् उल्लिखितम्।। ५. श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ (मध्य भारत ) इस समय भी श्री विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने (श्री शत्रजयदिशिवंदनार्थ प्रस्थापित तीर्थ) उपदेश से इन प्राचीन तीर्थ कल्प जिनमंदिरों का उद्धार कार्य महामालव की प्राचीन राजधानी धारा के पश्चिम में १४ करवाते रहते हैं एवं इसके हेतु सहस्रों रुपयों की सहायता कोस दूर माही नदी के दाहिने तट पर राजगढ़ नगर आबाद है। करवाई है। यहाँ जैनों (श्वेताम्बरों) के २५० घर और ५ जिनचैत्य है। यहाँ से यद्यपि कोरटा एवं इस तीर्थ के संबंध में कतिपय लेखकों ठीक १ मील दूर पश्चिम में श्रीमोहनखेडातीर्थ स्थित है। यह तीर्थ ने इतिहास लिखा है, किन्तु उपर्युक्त वास्तविक घटनाओं का श्री सिद्धाचलदिशिवंदनार्थ संस्थापित किया गया है। इसके निर्माता वर्णन नहीं करने का जो भाव रखता है, वह अशोभनीय है। राजगढ़ के निवासी संघवी दल्लाजी लुणाजी प्राग्वाटने विश्वपूज्य चारित्रचूड़ामणि, शासनसम्राट श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ४. तालनपुरतीर्थ (मध्यभारत) से जब व्याख्यान में अपने कृत पापों का प्रायश्चित माँगा और आलिराजपुर से कुक्षी जाने वाली सड़क की दाहिनी ओर गुरुदेव ने जो इस रमणीय शांतिप्रद स्थान पर श्री आदिनाथ प्रभ यह तीर्थ है। यह तीर्थस्थान बहत प्राचीन है और ऐसा कहा जाता का चैत्य बनवाने का उपदेश दिया, उसके फलस्वरूप यह बना है कि पूर्वकाल में यहाँ २१ जिनमंदिर और ५ हजार श्रमणोपासकों है। संघवी ने यह विशाल जिनालय शीघ्रातिशीघ्र बनवाकर के घर थे। यहाँ खंडहर रूप में बावडी, तालाब और भगर्भ से गुरुदेव के करकमलों से महामहोत्सव-पूर्वक सं. १९४० मगपर प्राप्त होने वाले पत्थरों और जिनप्रतिमाओं से इसकी प्राचीनता सुदि ७ गुरुवार को इसको प्रतिष्ठासम्पन्न करवाया। इस मंदिर की सिद्ध होती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी समय यह मूलनायक-प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान की है, जो सवा हाथ नगर दो-तीन कोस के घेरे में आबाद था। वि.सं. १९१६ में एक बड़ी श्वेत वर्ण की है। मूल चैत्य से ठीक पीछे ही आरसोपल की भिलाले के खेत से आदिनाथबिम्ब आदि २५ प्रतिमाएँ प्राप्त मनोरम छत्री है, जिसमें श्री ऋषभदेव प्रभु के चरणयुगल प्रस्थापित हुई। जिन्हें समीपस्थ कुक्षी नगर के जैन श्रीसंघ ने विशाल हैं। इस मंदिर के दक्षिण में एक मंदिर और है. जिसमें श्री सौधशिखरी जिनालय बनवाकर उसमें विराजमान किया इनमें से पार्श्वनाथ भगवान की तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मूल मंदिर में किसी प्रतिमा पर लेख नहीं है, अत: यह कहना कठिन है कि ये ओइल पेंट कलर के विविध चित्र अंकित हैं। किस शताब्दी की हैं। अनुमान और प्रतिमाओं की बनावट से ज्ञात उक्त मंदिरों के ठीक सामने तीर्थस्थापनोपदेश-कता होता है कि ये प्रतिमाएँ एक हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं। जैनाचार्य प्रभ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का समाधि यहाँ जैन-श्वेताम्बरों के दो मंदिर हैं। एक तो उक्त ही है मंदिर है, जहाँ विक्रम संवत् १९६३ पौष स. ७ मोहनखेडा और दसरा उसी के पास श्री गौडीपार्श्वनाथजी का है। पार्श्वनाथ (राजगढ़) में श्रीसंघ ने उनके पार्थिव शरीर का अंत्येष्टि संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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