Book Title: Marudhar aur Malva ke Panch Tirth Author(s): Devendravijay Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 1
________________ मरुधर और मालवे के पाँच तीर्थ व्याख्यान-वाचस्पति श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि शिष्य मुनि देवेन्द्रविजय 'साहित्यप्रेमी'...ly सवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान विद्यमान है। इसका वर्तमान नाम कोरटा है। अभी यहाँ जैनों के बा रखती है। इसमें अनेक धर्मप्रचारक और राष्ट्रीय नेता पैदा ५० घर और उनमें लगभग २५० मनुष्य हैं तथा चार जिनेन्द्र हुये हैं। धर्मोद्धारकों में परम पूज्य प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी मन्दिर हैं। जिन की व्यवस्था स्वर्गीय गुरुदेव प्रभु महाराज का विशिष्ट और गौरवशाली स्थान है। आपने अपनी श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से संस्थापित श्री सर्वतोमुखी शास्त्र-सम्मत्त विविध प्रवृत्तियों से जैन समाज का जैन पीढी करती आ रही है। बड़ा ही गौरव बढ़ाया है। आपने जहाँ क्रियोद्धार कर श्रमण-संघ (१) श्रीमहावीर-मन्दिर :को वास्तविक प्रकार से चारित्र-पालन का मार्ग पुनः दिखलाया, वहाँ साहित्य-निर्माण कार्य भी महत्त्वपूर्ण प्रकारों से सम्पन्न कोरटा के दक्षिण में यह मन्दिर है। यह विशेषतः प्राचीन किया और प्राचीन तीर्थों का उद्धार कार्य भी। आपने जिन प्राचीन सादी शिल्पकला के लिये नमूनारूप है। श्री श्री रत्नप्रभसूरीश्वजीने तीर्थों और चैत्यों की सेवा की हैं, उनका यहाँ इस लघु लेख में वीरात् सं. ७० में इसकी प्रतिष्ठा की थी। विक्रम संवत् १७२८ में परिचय देना ही हमारा ध्येय है। श्रावण सुदी १ के दिन श्री विजयप्रभसूरि के आज्ञावर्ती श्री जयविजय गणीने प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर नवीन दूसरी प्रतिमा १. श्रीकोरटाजीतीर्थ : प्रतिष्ठित की थी। तत्सम्बन्धी एक लेख मन्दिर के मण्डप के एक कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापुर और कोरंटी स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस श्रीजयविजयगणीप्रतिष्ठित प्रतिमा का आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन-साहित्य में उल्लेख उत्तमांगे विकल हो जाने पर आचार्यवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसरीश्वरजी मिलता है। उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री महावीर देव महाराजने अपने उपदेश से मन्दिर का पुनरुद्धार करवाकर नूतन के महापरिनिर्वाण के पश्चात् ७० वें वर्ष में श्री पार्श्वनाथसंतानीय श्री वीरप्रतिमा प्रतिष्ठित की और श्रीजयविजयगणी द्वारा प्रतिष्ठित श्री स्वयंप्रभसूरीश पट्टालंकार उपकेशवंश-संस्थापक प्रतिमा लेपादि से सुधरवा कर मन्दिर की नव चौकी में विराजमान श्रीरत्नप्रभसूरिजीने ओसिया और यहाँ एक ही लग्न में श्रीमहावीर करवा दी। देव की प्रतिमा स्थापित की थी। इस नगर से श्रीरत्नप्रभसूरि के (२) श्रीआदिनाथ-मन्दिर :शासनकाल में ही श्रीकनकप्रभसूरि से उपकेशगच्छ में से कोरंटगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। श्रीकनप्रभसरि रत्नप्रभसरि के सनिकटस्थ धोलागिरि की ढालू जमीन पर यह मन्दिर है। गुरुभाई थे। कोरंटगच्छ में अनेक महाप्रभाविक जैनाचार्य हये इसको विक्रम की १३वीं शताब्दी में महामात्य नाहड़ के किसी हैं। वि.सं. १५२५ के लगभग कोरंट तपा नामक एक शाखा भी कुटुम्बीने अपने आत्मकल्याण के लिये निर्मित किया ज्ञात होता निकली थी। कई शताब्दियों तक यह नगर जनधन और सब है। इसमें (आयतन) निर्माता की प्रतिष्ठित करवाई हुई प्रतिमा प्रकार से उन्नत और समृद्ध रहा है। वर्तमान में इसके खण्डहर खण्डित हो जाने पर उसे हटा कर नवीन प्रतिमा वि.सं. १९०३ देख कर भी ऐसा विश्वास किया जा सकता है और उल्लेख तो मेंदेवसूरिगच्छीय श्रीशान्तिसूरिजीने प्रतिष्ठित की और वही प्रतिमा मिलते ही हैं। अभी भी विराजित है। मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों ओर विराजित प्रतिमाएँ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा यह प्राचीन समृद्ध नगर ५०० घरों के एक लघु ग्राम के प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं। रूप में आज एरणपुरा स्टेशन से १२ मील दूर पश्चिम की ओर daworsrodromotoroondondlorotoriodiousworsridल १४२]dorsadnirandibasinduitronowindiasardibasahasrdardi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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