Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
मरुधर और मालवे के पाँच तीर्थ
व्याख्यान-वाचस्पति श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि शिष्य मुनि देवेन्द्रविजय 'साहित्यप्रेमी'...ly
सवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान विद्यमान है। इसका वर्तमान नाम कोरटा है। अभी यहाँ जैनों के बा रखती है। इसमें अनेक धर्मप्रचारक और राष्ट्रीय नेता पैदा ५० घर और उनमें लगभग २५० मनुष्य हैं तथा चार जिनेन्द्र हुये हैं। धर्मोद्धारकों में परम पूज्य प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी मन्दिर हैं। जिन की व्यवस्था स्वर्गीय गुरुदेव प्रभु महाराज का विशिष्ट और गौरवशाली स्थान है। आपने अपनी श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से संस्थापित श्री सर्वतोमुखी शास्त्र-सम्मत्त विविध प्रवृत्तियों से जैन समाज का जैन पीढी करती आ रही है। बड़ा ही गौरव बढ़ाया है। आपने जहाँ क्रियोद्धार कर श्रमण-संघ
(१) श्रीमहावीर-मन्दिर :को वास्तविक प्रकार से चारित्र-पालन का मार्ग पुनः दिखलाया, वहाँ साहित्य-निर्माण कार्य भी महत्त्वपूर्ण प्रकारों से सम्पन्न कोरटा के दक्षिण में यह मन्दिर है। यह विशेषतः प्राचीन किया और प्राचीन तीर्थों का उद्धार कार्य भी। आपने जिन प्राचीन सादी शिल्पकला के लिये नमूनारूप है। श्री श्री रत्नप्रभसूरीश्वजीने तीर्थों और चैत्यों की सेवा की हैं, उनका यहाँ इस लघु लेख में वीरात् सं. ७० में इसकी प्रतिष्ठा की थी। विक्रम संवत् १७२८ में परिचय देना ही हमारा ध्येय है।
श्रावण सुदी १ के दिन श्री विजयप्रभसूरि के आज्ञावर्ती श्री
जयविजय गणीने प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर नवीन दूसरी प्रतिमा १. श्रीकोरटाजीतीर्थ :
प्रतिष्ठित की थी। तत्सम्बन्धी एक लेख मन्दिर के मण्डप के एक कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापुर और कोरंटी स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस श्रीजयविजयगणीप्रतिष्ठित प्रतिमा का आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन-साहित्य में उल्लेख उत्तमांगे विकल हो जाने पर आचार्यवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसरीश्वरजी मिलता है। उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री महावीर देव महाराजने अपने उपदेश से मन्दिर का पुनरुद्धार करवाकर नूतन के महापरिनिर्वाण के पश्चात् ७० वें वर्ष में श्री पार्श्वनाथसंतानीय श्री वीरप्रतिमा प्रतिष्ठित की और श्रीजयविजयगणी द्वारा प्रतिष्ठित श्री स्वयंप्रभसूरीश पट्टालंकार उपकेशवंश-संस्थापक प्रतिमा लेपादि से सुधरवा कर मन्दिर की नव चौकी में विराजमान श्रीरत्नप्रभसूरिजीने ओसिया और यहाँ एक ही लग्न में श्रीमहावीर करवा दी। देव की प्रतिमा स्थापित की थी। इस नगर से श्रीरत्नप्रभसूरि के
(२) श्रीआदिनाथ-मन्दिर :शासनकाल में ही श्रीकनकप्रभसूरि से उपकेशगच्छ में से कोरंटगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। श्रीकनप्रभसरि रत्नप्रभसरि के सनिकटस्थ धोलागिरि की ढालू जमीन पर यह मन्दिर है। गुरुभाई थे। कोरंटगच्छ में अनेक महाप्रभाविक जैनाचार्य हये इसको विक्रम की १३वीं शताब्दी में महामात्य नाहड़ के किसी हैं। वि.सं. १५२५ के लगभग कोरंट तपा नामक एक शाखा भी कुटुम्बीने अपने आत्मकल्याण के लिये निर्मित किया ज्ञात होता निकली थी। कई शताब्दियों तक यह नगर जनधन और सब है। इसमें (आयतन) निर्माता की प्रतिष्ठित करवाई हुई प्रतिमा प्रकार से उन्नत और समृद्ध रहा है। वर्तमान में इसके खण्डहर खण्डित हो जाने पर उसे हटा कर नवीन प्रतिमा वि.सं. १९०३ देख कर भी ऐसा विश्वास किया जा सकता है और उल्लेख तो मेंदेवसूरिगच्छीय श्रीशान्तिसूरिजीने प्रतिष्ठित की और वही प्रतिमा मिलते ही हैं।
अभी भी विराजित है। मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों ओर
विराजित प्रतिमाएँ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा यह प्राचीन समृद्ध नगर ५०० घरों के एक लघु ग्राम के
प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं। रूप में आज एरणपुरा स्टेशन से १२ मील दूर पश्चिम की ओर
daworsrodromotoroondondlorotoriodiousworsridल
१४२]dorsadnirandibasinduitronowindiasardibasahasrdardi
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास(३) श्रीपार्श्ववनाथ मन्दिरः
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से ही सम्पन्न यह जिनालय गाँव के मध्य में है। इसको कब, किसने
हुआ था। यह प्रतिष्ठा-महोत्सव मरुधर के १५० वर्ष के इतिहास में बनाया और किस गच्छ के मनिपंगव ने प्रतिष्ठित किया यह
आहोर के प्रतिष्ठोत्सव (१९५५) के पश्चात् दूसरा था। अज्ञात है। अनुमानतः ज्ञात होताहै कि ऊपर वर्णित श्रीआदिनाथ
प्रतिष्ठाप्रशस्ति:चैत्य से यह प्राचीन है। इसकी स्तम्भमाला के एक स्तम्भ पर वीरनिर्वाणसप्तति-वर्षात्पार्श्वनाथसंतानीयः । ॐना++++ढ़ा' लेखाक्षर अवशिष्ट हैं। इससे ज्ञात होता है कि विद्याधरकुलजातो, विद्यया रत्नप्रभाचार्यः ।।१।। महामात्य श्री नाहड़ के द्वितीय पुत्र श्री ढाकलजी द्वारा निर्मित द्विधा कृतात्मा लग्ने, चैकस्मिन् कोरंट ओसियायां । यह मन्दिर हो और इसी से अमात्य के नाम के आगे मंगल का वीरस्वामिप्रतिमा-मतिष्ठपदिति पप्रथेऽथ प्राचीनम् ।।२।। संसूचक ॐ लगाया हो। श्रीमहावीर मन्दिर के स्तम्भों पर भी देवड़ा ठक्कुर विजयसिंहे, कोरंटस्थ वीरजीर्णबिम्बम् । 'ॐना०००ढ़ा' लिखा हुआ मिलता है। संभवतया उक्त मंत्रीपुत्रने
उत्थाप्य राधशुक्ले निधिशरनवेन्दुके पूर्णिमा गुरौ ।।३।। प्राचीन श्री वीर मन्दिर का भी उद्धारकार्य करवाया हो। इस
सुस्थिषभे लग्ने, तस्य सौधर्मबृहत्तपोगच्छीयः । पार्श्वनाथ मन्दिर का उद्धार विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी में कोरटा
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिः प्रतिष्ठांजनशलाके चक्रे ।।४।। के ही नागोतरागोत्रीय किसी श्रावक ने करवाया था। तत्पश्चात्
कोरंटवासिमूतामोखासुतकस्तूरचन्द्रयशराजौ ।
दत्वोदधिशतमेकं श्रीमहावीरप्रतिमामतिष्ठिपत्ताम् ।।५।। समय-समय पर कुछ अंशों में उद्धार-कार्य होता रहा है। इसमें
हरनाथसुतष्टेकचन्द्रस्तच्चैत्यकोपरि । पहले श्रीशान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक केस्थान
कलशारोपणं चक्रे, भूबाणगुणदायकः ।।६।। पर विराजमान थी। उसके विकलांग हो जाने पर उसके स्थान पर
पोमावापुरवासी हरनाथात्मजः खुमाजी श्रेष्ठी । श्रीपार्श्वनाथजी की प्रतिमा विराजित की गई। जिसकी प्राणप्रतिष्ठा
पृथ्वीशरसमुद्रां प्रदाय ध्वाजामारोपयामास ।।७।। श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वजी महाराजने की है। श्री पार्श्ववनाथजी
ओसवालरतनसुता हीरचेन नवलकस्तूरचन्द्रा । के दोनों ओर विराजित प्रतिमा भी नूतन हैं।
शशिवसुकरदा दण्ड-मतिष्ठिपन् कलापुरावासिनस्ते ।।८।। (४) श्रीकेशरियानाथ का मन्दिर :
राजेन्द्रसूरिशिष्यवाचकः मोहनविजयाभिधो धीरः ।
लिलेख प्रशस्तिमेनां, गुरुपदकमलध्यानशुभंयुः ।।९।। विक्रम संवत् १९११ जेठ सुदि ८ के दिन प्राचीन श्री वीर
।।इति श्रीकोरंटपुरमण्डन-श्रीमहावीरजिनालयस्य प्रतिष्ठाप्रशस्तिः ।। मन्दिर के कोट का निर्माण कार्य करवाते समय कहीं बाईं ओर की जमीन के एक टेकरे को तोड़ते समय श्वेत वर्ण की पाँच
- सं. १९५९ वैशाख सुदि १५ । मु. कोरटा मारवाड - फीट प्रमाण की विशालकाय श्रीआदिनाथ भगवान की पद्मासनस्थ (२) श्री भाण्डवा तीर्थ और इतनी ही बड़ी श्रीसंभवनाथ तथा श्रीशान्तिनाथजी की कायोत्सर्गस्थ मनोहर एवं सर्वांगसुन्दर अखण्डित दो प्रतिमायें
यह भाण्डवा अथवा भाण्डवपुर नाम का ग्राम जोधपुर से निकली थीं। इन कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं को विक्रम संवत् ११४३
राणीबाड़ा जानेवाली रेल्वे लाइन के मोदरा स्टेशन से २२ मील
दूर उत्तर-पश्चिम में चारों ओर से रेगिस्तान से घिरा हुआ है। यहाँ वैशाख सुदि द्वितीया गुरुवार को श्रावक रामाजरुक ने बनवाया
जैनेतरों के २०० घर आबाद हैं । यह ग्राम और मंदिर बहुत और बृहद्गच्छीय श्रीविजयसिंहसूरिजीने इनकी प्रतिष्ठांजनशलाका की। श्रीआदिनाथ प्रतिमा पर लेखादि नहीं है । इन प्रतिमाओं को
प्राचीन है । सर्वप्रथम जालोर (जाबालीपुर) के परमार भाण्डुसिंह
ने इसको बसा कर इस पर शासन किया था। उसके वंशजों ने भी विराजमान करने के हित कोरटा के श्रीसंघ ने श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से यह
कितनी ही पीढ़ियों तक शासन किया। वि.सं. १३२२ में बावतरा
के दय्या राजपूत बुहड़सिंह ने परमारों को परास्त कर इस पर विशालकाय दिव्य एवं मनोहर मन्दिर बनवाया है। इसका प्रतिष्ठा
__ अपना अधिकार स्थापित किया था । इसके वंशजों ने शनैः महोत्सव विक्रम संवत् १९५९ वैशाख सुदि पूर्णिमा को
शनैः इस प्रान्त में सर्वत्र स्थान-स्थान पर अपना शासन
darkandaritorionitomodiramidnianitoniraminiromira१४३Handirirandirbromidnidadariridvioriraniraniwariwarian
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
_- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. जमा लिया जिससे कलान्तर में इस प्रान्त का नाम ही दियावट- स्वर्गवास के समय वि.सं. १९६३ में राजगढ़ (मध्य भारत) पट्टी हो गया । बाद में इस पर जोधपुर-नरेश का अधिकार हो में गुरुदेव ने कोरटा, जालोर, तालनपुर और मोहनखेड़ा के साथ जाने पर विक्रम संवत् १८०३ में जोधपुराधपि रामसिंह ने दय्या इस तीर्थ की भी व्यवस्था-उद्धारादि सम्पन्न करवाने का लुम्बाजी से इसे छीन कर समीपस्थ आणाग्राम के ठाकुर मालमसिंह वर्तमानाचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी को आदेश दिया था। आपने भी को दिया । आज भी उक्त ठाकुर के वंशज भगवानसिंहजी यहाँ गुर्वाज्ञा से उक्त समस्त तीर्थों की व्यवस्था तथा उद्धारादि के के जागीदार हैं।
लिए स्थान-स्थान के जैन श्रीसंघ को उपदेश दे-देकर सब विक्रम की ७ वीं शताब्दी में इस प्रान्त में बेसाला नाम का
तीर्थों का उद्धार कार्य करवाया। श्री अभिधानराजेन्द्रकोष के एक अच्छा कस्बा आबाद था। जिसमें जैन श्वेताम्बरों के सैंकड़ों
संपादन और उसकी अर्थव्यवस्था में में लग जाने से थोड़े विलंब घर थे। वहाँ एक भव्य मनोहर विशाल सौध-शिखरी जिनालय स इस ताथ क तृतीयाद्धार का
से इस तीर्थ के तृतीयोद्धार को आपने वि.सं. १९८८ में प्रारंभ था। इसके प्रतिष्ठाकारक आचार्य का नाम क्या था और वे किस
करवाया जो कि वि.सं. २००७ में पूर्ण हुआ। इसकी प्रतिष्ठा का गच्छ के थे यह अज्ञात है। मात्र जिनालय के एक स्तंभ पर सं. महामहोत्सव वि.सं. २०१० ज्येष्ठ सु. १ सोमवार को ८१३ श्री महावीर इतना लिखा है।
दशदिनावधिक उत्सव के साथ सम्पन्न हुआ था। इस प्रतिष्टोत्सव
में २५ सहस्र के लगभग जनता उपस्थित हुई थी। इस महामहोत्सव बेसाला पर मेमन डाकुओं के नियमित हमले होते रहने से
को इन पंक्तियों के लेखक ने भी देखा है। यहाँ यात्रियों के जनता उसे छोड़ कर अन्यत्र जा बसी, डाकुओं ने मन्दिर पर भी
ठहरने के लिए मरुधरदेशीय श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री आक्रमण करके उसे तोड़ डाला, किसी प्रकार प्रतिमा को बचा
संघ की ओर से मंदिर के तीनों ओर विशालकाय धर्मशाला बनी लिया गया। जनश्रुत्यनुसार कोमता के निवासी संघवी पालजी
हुई है। मंदिर में मूलनायकजी के दोनों ओर की सब प्रतिमाजी प्रतिमाजी को एक शकट में विराजमान कर कोमता ले जा रहे थे
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के द्वारा प्रतिष्ठित है। मूल कि शकट भांडवा में जहाँ वर्तमान में चैत्य है, वहाँ आकर रुक
मंदिर के चारों कोनों में जो लघु मंदिर हैं, उनमें विराजित प्रतिमाएँ गया और लाख-लाख प्रयत्न करने पर भी जब गाड़ी नहीं चलीं
वि.सं. १९९८ में बागरा में श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज तो सब निराश होगये । रात्रि के समय अर्ध-जागृतावस्था में
के करकमलों से प्रतिष्ठित हैं, जो यहाँ २०१० के प्रतिष्ठोत्सव के पालजी को स्वप्र आया कि प्रतिमा को इसी स्थान पर चैत्य बनवा कर उस में विराजमान कर दो । स्वप्रानुसार पालजी
अवसर पर विराजमान की गई हैं। संघवी ने यह मन्दिर विक्रम संवत् १२३३ माघ सुदि ५ गुरुवार
प्रत्येक जैन को एक बार अवश्य रेगिस्तान के इस प्रकट को बनवा कर महामहोत्सव सहित उक्त प्रभावशाली प्रतिमा को प्रभावी प्राचीन तीर्थ का दर्शन-पूजन करना चाहिए। विराजमान करा दिया। आज भी यहाँ पालजी संघवी के वंशज
(३) श्रीस्वर्णगिरितीर्थ-जालोर ही प्रति वर्ष मन्दिर पर ध्वजा चढाते हैं। इसका प्रथम जीर्णोद्धार वि.सं. १३५९ में और द्वितीय जीर्णोद्धार विक्रम संवत् १६५४ में
यह प्राचीन तीर्थ जोधपुर से राणीवाड़ा जाने वाली रेलवे दियावट पट्टी के जैन श्वेताम्बर श्री संघने करवाया था।
लाइन के जालोर स्टेशन के समीप स्वर्णगिरि नाम से प्रख्यात
पर्वत पर स्थित है। नीचे नगर में प्राचीनार्वाचीन १३ मंदिर हैं। विक्रमीय २० वीं शताब्दी के महान् ज्योतिधर
ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि जालोर नवमी शताब्दी में अति परमक्रियोद्धारक प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज जब
समृद्ध था। वर्तमान में पर्वत पर किले में ३ प्राचीन और दो नूतन आहोर से संवत् १९५५ में इधर पधारे तो समीपवर्ती ग्रामों के
भव्य जिनमंदिर है। प्राचीन चैत्य यक्षवसति (श्री महावीर मंदिर), निवासी श्रीसंघने उक्त प्रतिमा को यहाँ से नहीं उठाने और इसी
अष्टापदावतार (चौमुख) और कुमारविहार (पार्श्वनाथ चैत्य) हैं। चैत्य का विधिपूर्वक पुनरोद्धारकार्य सम्पन्न करने को कहा। गुरुदेवने सारी पट्टी में भ्रमण कर जीर्णोद्धार के लिये उपदेश भी दिये।
यक्षवसति जिनालय सबसे प्राचीन है। यह भव्य मंदिर दर्शकों को तारंगा के विशालकाय मंदिर की याद दिलाता है।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
- तान्दरि स्मारक पदय - इतिहासइसको नाहट (नामक राजा) ने बनवाया था ऐसा निम्न प्राकृत था और वि.सं. १६८१, १६८३ तथा १६८६ में अलग-अलग पद्म से ध्वनित होता है।
तीन बार महामहोत्सवपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठाएँ करवा कर सैकड़ों नवनवइ लक्खधणवड़ अलद्धवासे सुवण्णगिरि सिहरे।
जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थीं। साँचोर (राजस्थान) में भी नाहडनिवकारवियं थुणि वीरं जक्खवसहीए।।१।।
जयमलजी की बनवाई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। इस समय वे ही
प्रतिमाएँ प्रायः किले के सब चैत्यों में विराजमान है। यानी यहाँ ९९ लक्ष रुपयों की संपत्ति वाले श्रेष्ठियों को भी रहने को स्थान नहीं मिलता था, किले पर सब करोड़पति ही
बाद में इन सब मंदिरों में राजकीय कर्मचारियों ने राजकीय निवास करते थे। ऐसे सुवर्णगिरि के शिखर पर नाहड (राजा) युद्ध सामना
युद्ध सामग्री आदि भर कर इनके चारों ओर काँटे लगा दिए थे। द्वारा निर्मित यक्षवसति में श्रीमहावीरदेव की स्तुति करो।
विहारानुक्रम से महान् ज्योतिर्धर आगमरहस्यवेदी प्रभु
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का वि.सं. १९३२ के उत्तरार्ध कुमारविहार जिनालय को सं. १२२१ के लगभग परमार्हत्
में जालोर पधारना हुआ। आप से जिनालयों की उक्त दशा देखी महाराजाधिहाज कुमारपाल भूपाल ने कलिकाससर्वज्ञ श्रीमद्
न गई। आपने तत्काल राजकर्मचारियों से मंदिरों की माँग की हेमचन्द्रसूरीन्द्र के उपदेश से कुमारविहार के गुणनिष्पन्न
और उनको अनेक प्रकार से समझाया, परंतु जब वे किसी नामाभिधान से विख्यात यह चैत्य बनवाया था। पहले यह ७२
प्रकार नहीं माने तो गुरुदेव ने जनता से दृढ़तापूर्वक घोषणा की जिनालय था। परंतु सं. १३३८ के लगग अलाउद्दीन ने धर्मान्धता से प्रेरित हो जालोर (जाबालीपुर) पर चढ़ाई की थी, तब उस
कि जब तक स्वर्णगिरि के तीनों जिनालयों को राजकीय शासन नराधम के पापी हाथों से इस गिरि एवं आबू के सुप्रसिद्ध मंदिरों
से मुक्त नहीं करवाऊँगा, तब तक मैं नित्य एक ही बार आहार से स्पर्धा करने वाले नगर के मनोहर एवं दिव्य मंदिरों का नाश
लूँगा और द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और
अमावस्या तथा पूर्णिमा को उपवास करूँगा। आपने इसी कार्य हुआ था। उन मंदिरों की याद दिलाने वाली तोपखाना मस्जिद जो खण्डित मंदिरों के पत्थरों से धर्मान्ध यवनों ने बनवाई थी
को सम्पन्न करने के हेतु सं. १९३३ का वर्षावास जालोर में ही वह मस्जिद आज भी विद्यमान है। इस तोपखाने में लगे अधिकांश
किया। यथासमय आपने योग्य व्यक्तियों की एक समिति पत्थर खण्डित मंदिरों के हैं और अखण्डित भाग तो जैनपद्धति
बनाई और उन्हें वास्तविक न्याय की प्राप्ति हेतु जोधपुर-नरेश के अनुसार है। इस में स्थान-स्थान पर स्तम्भों और शिलाओं
यशवंतसिंहजी के पास भेजा। पर लेख हैं। जिनमें कितने ही लेख सं. ११९४, १२३९, १२६८, कार्यवाही के अंत में राजा यशवंतसिंहजी ने अपना न्याय १३२० आदि के हैं।
इस प्रकार घोषित किया 'जालोरगढ़ (स्वर्णगिरि) के मंदिर जैनों उक्त दो चैत्यों के सिवाय चौमख अष्टापदावतार चैत्य भी के हैं, इसलिए उनका मन न दुखाते हुए शीघ्र ही मंदिर उन्हें सौंप प्राचीन है। यह चैत्य कब किसने बनवाया यह अज्ञात है। दिए जाएँ और इस निमित्त उनके गुरु श्री राजेन्द्रसूरिजी जो अभी
विक्रम संवत् १०८० में यहीं (जालोर में) रहकर श्रीश्री तक आठ महीनों से तपस्या कर रहे हैं. उन्हें जल्दी से पारणा बुद्धिसागरसूरिवर ने सात हजार श्लोक परिमित श्री बद्धिसागर करवाकर दो दिन में मुझे सूचना दी जाए।' व्याकरण बनाई थी, उसकी प्रशस्ति में लिखा है --
इस प्रकार गुरुदेव अपने साधनामय संकल्प को पूरा कर श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्त्रे। विजयी हुए। सश्रीकजाबालीपुरे तदाद्यं दृब्धं मया सप्तसहस्त्रकल्पम्।।११।.
गुरुदेव की आज्ञा से मंदिरों का जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ और बहुत वर्षों तक स्वर्णगिरि के ये ध्वस्त मंदिर जीर्णावस्था वि.सं. १९३३ के माघ सु. १ रविवार को महामहोत्सवपूर्वक में ही रहे। विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में जोधपुर-निवासी और प्रतिष्ठाकार्य करवाकर गुरुदेव ने नौ (९) उपवास की पारणा जालोर के सर्वाधिकारी मंत्री श्री जयमल मुहणोत ने यहाँ के करके अन्यत्र विहार किया। इस प्रतिष्ठा का परिचायक लेख श्री सब ध्वस्त जिनालयों का निजोपार्जित लक्ष्मी से पुनरुद्धार करवाया अष्टापदावतार चौमुख मंदिर में लगा हुआ है--
trolarstandarmanoranciderstandidrorariantravarsna१४५ sarororandivanitarianiamarianitariatriramirritiiran
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाम्'संवच्छुभे त्रयस्त्रिंशन्नन्दैकविक्रमाद्वरे। भगवान् की प्रतिमा वि.सं. १९२८ मग. सु. पूर्णिमा को सवा माघमासे सिते पक्षे, चंद्रे प्रतिपदातिथौ।।१।। प्रहर दिन चढ़े पुरानी गोरवड़ावाव से निकली थी। यह श्री पार्श्वनाथ जालंधरे गढे श्रीमान्, श्रीयशस्वन्तसिंहराट्। प्रतिमा सं. १०२२ फा. सु. ५ गुरुवार को श्री श्रीबप्पभट्टीसूरिजी तेजसाधुमणिः साक्षात्, खण्डयामास यो रिपून्।।२।। के करकमलों से प्रतिष्ठित है। विजयसिंहश्च किल्लादार धर्मी महाबली।
इस प्रतिमा को वि.सं. १९५० माह वदि २ सोमवार को तस्मिन्नवसरे संघर्जीर्णोद्धारश्चः कारितः।।३।।
महोत्सवपूर्वक श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने प्रतिष्ठित चैत्यं चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम्। एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि, प्रतिष्ठा कारिता वरा।।४।।
किया था। ओशवंशे निहालस्य, चोधरी कानुगस्य च।
इस स्थल के तुंगीयापुर, तुंगीयापत्तन और तारन (तालन) सुत प्रतापमल्लेन प्रतिमा स्थापिता शुभा।।५।। पुर ये तीन नाम हैं। श्रीऋषभजिनप्रासादात् उल्लिखितम्।।
५. श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ (मध्य भारत ) इस समय भी श्री विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने (श्री शत्रजयदिशिवंदनार्थ प्रस्थापित तीर्थ) उपदेश से इन प्राचीन तीर्थ कल्प जिनमंदिरों का उद्धार कार्य
महामालव की प्राचीन राजधानी धारा के पश्चिम में १४ करवाते रहते हैं एवं इसके हेतु सहस्रों रुपयों की सहायता
कोस दूर माही नदी के दाहिने तट पर राजगढ़ नगर आबाद है। करवाई है।
यहाँ जैनों (श्वेताम्बरों) के २५० घर और ५ जिनचैत्य है। यहाँ से यद्यपि कोरटा एवं इस तीर्थ के संबंध में कतिपय लेखकों ठीक १ मील दूर पश्चिम में श्रीमोहनखेडातीर्थ स्थित है। यह तीर्थ ने इतिहास लिखा है, किन्तु उपर्युक्त वास्तविक घटनाओं का श्री सिद्धाचलदिशिवंदनार्थ संस्थापित किया गया है। इसके निर्माता वर्णन नहीं करने का जो भाव रखता है, वह अशोभनीय है। राजगढ़ के निवासी संघवी दल्लाजी लुणाजी प्राग्वाटने विश्वपूज्य
चारित्रचूड़ामणि, शासनसम्राट श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ४. तालनपुरतीर्थ (मध्यभारत)
से जब व्याख्यान में अपने कृत पापों का प्रायश्चित माँगा और आलिराजपुर से कुक्षी जाने वाली सड़क की दाहिनी ओर गुरुदेव ने जो इस रमणीय शांतिप्रद स्थान पर श्री आदिनाथ प्रभ यह तीर्थ है। यह तीर्थस्थान बहत प्राचीन है और ऐसा कहा जाता का चैत्य बनवाने का उपदेश दिया, उसके फलस्वरूप यह बना है कि पूर्वकाल में यहाँ २१ जिनमंदिर और ५ हजार श्रमणोपासकों है। संघवी ने यह विशाल जिनालय शीघ्रातिशीघ्र बनवाकर के घर थे। यहाँ खंडहर रूप में बावडी, तालाब और भगर्भ से गुरुदेव के करकमलों से महामहोत्सव-पूर्वक सं. १९४० मगपर प्राप्त होने वाले पत्थरों और जिनप्रतिमाओं से इसकी प्राचीनता सुदि ७ गुरुवार को इसको प्रतिष्ठासम्पन्न करवाया। इस मंदिर की सिद्ध होती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी समय यह मूलनायक-प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान की है, जो सवा हाथ नगर दो-तीन कोस के घेरे में आबाद था। वि.सं. १९१६ में एक बड़ी श्वेत वर्ण की है। मूल चैत्य से ठीक पीछे ही आरसोपल की भिलाले के खेत से आदिनाथबिम्ब आदि २५ प्रतिमाएँ प्राप्त मनोरम छत्री है, जिसमें श्री ऋषभदेव प्रभु के चरणयुगल प्रस्थापित हुई। जिन्हें समीपस्थ कुक्षी नगर के जैन श्रीसंघ ने विशाल हैं। इस मंदिर के दक्षिण में एक मंदिर और है. जिसमें श्री सौधशिखरी जिनालय बनवाकर उसमें विराजमान किया इनमें से पार्श्वनाथ भगवान की तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मूल मंदिर में किसी प्रतिमा पर लेख नहीं है, अत: यह कहना कठिन है कि ये ओइल पेंट कलर के विविध चित्र अंकित हैं। किस शताब्दी की हैं। अनुमान और प्रतिमाओं की बनावट से ज्ञात उक्त मंदिरों के ठीक सामने तीर्थस्थापनोपदेश-कता होता है कि ये प्रतिमाएँ एक हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं। जैनाचार्य प्रभ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का समाधि
यहाँ जैन-श्वेताम्बरों के दो मंदिर हैं। एक तो उक्त ही है मंदिर है, जहाँ विक्रम संवत् १९६३ पौष स. ७ मोहनखेडा और दसरा उसी के पास श्री गौडीपार्श्वनाथजी का है। पार्श्वनाथ (राजगढ़) में श्रीसंघ ने उनके पार्थिव शरीर का अंत्येष्टि संस्कार
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
-चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकिया था। समाधि-मंदिर के बन जाने पर इसमें गुरुदेव की
सन्दर्भ प्रतिमा स्थापित की गई। इस संदर समाधि-मंदिर की भित्तियों
१. उक्त पट्टावली में यह संवत् लिखा हुआ मिलता है। परन्तु पर गुरुदेव के विविध जीवन-चित्र आलेखित हैं। इस तीर्थ का
इतिहासज्ञों के समक्ष यह अभी मान्य नहीं हो सका है। उद्धार-कार्य हाल ही में वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से सम्पन्न हुआ है। वि.सं. २०१३ चैत्र सु.
__ - सम्पादक १० को दोनों मंदिर और समाधि-मंदिर पर आपके ही करकमलों २. 'संवत् १६२८ वर्षे श्रावण सुदि १ दिन, भट्टारक से ध्वजदण्ड समारोपित हुए हैं।
श्रीविजयप्रभ सूरीश्वर राज्ये श्रीकोरटानगरे, पण्डित श्री ५ श्री
श्रीजय विजयगणिना उपदेशथी मु. जेतपुरा सिंगभार्या, म. महाराय जब वि.सं. २०१२ ज्येष्ठ पूर्णिमा को लगभग १८ वर्षों के पश्चात् गुरुदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का मुनिमण्डल
सिंगभार्या, सं. बीका, सांवरदास, को उधरणा, मु. जेसंग, सा.
गांगदास, सा. ताधा, सा. खीसा, सा. छाँजर, सा. नारायण, सा. सह यहाँ पर पदार्पण हुआ उस समय मालव-निवासी श्री संघ तीर्थदर्शन एवं गुरुदेव की मंगलमय वाणी को सुनने की उत्कण्ठा
कचरा प्रमुख समस्त संघ भेला हुईने श्री महावीर पवासण बदूसार्या
छे लिखितं गणी मणिविजयकेसरविजयेन बाहरा महवद सुत लाधा से लगभग चार हजार की संख्या में उपस्थित हुआ था। गुरुदेव का श्रीसंघ को यही उपदेश हुआ कि समाज की आध्यात्मिक
पदम लखतं, समस्त संघ नर मांगलिक भवति शुभं भवतु।' उन्नति के लिए समाज में श्रेष्ठ गुरुकुलों का होना आवश्यक है, ३. उत्तमांग विकल महिला को मूलनायक रखना या नहीं क्योंकि इस भौतिकवाद के युग में मानवमात्र को शांति की रखना के लिए देखिये श्री वर्तमानाचार्य-लिखित 'श्रीकोरटाजी प्राप्ति यदि किसी से हो सकती है, तो वह एकमात्र धार्मिक तीर्थ का इतिहास' शिक्षा से ही जो केवल गुरुकुल द्वारा ही प्रसारित की जा ४. विशेष ज्ञातव्य बोतां के लिए कविवर मनि श्रीविद्याविजयजी सकती है।
महाराज द्वारा लिखित 'श्री भाण्डवपुर जैन तीर्थ मण्डन श्रीवीरचैत्य गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीसंघ ने श्रीमोहनखेडा - प्रतिष्ठामहोत्सव' देखिए तीर्थ में ही 'श्री आदिनाथ-राजेन्द्रजैन-गुरुकुल' नाम की शिक्षण प'स्वास्ति श्री पार्श्वजिनप्रदेशात्संवत १०२२ वर्षे मासे फालाने संस्था का सर्वानुमति से खोलना तत्काल घोषित कर दिया। इस सदि पक्षे ५ गरुवासरे श्रीमान श्रेष्ठी श्रीसखराज राज्ये प्रतिष्ठितं श्री समय यह संस्था राजगढ़ में चल रही है और मोहनखेड़ा में भवन
नखड़ा म भवन बप्पभट्टी (ट्ट) सूरिभिः तुंगिया पन्तने।'
बप्पटी (ट: बन जाने पर निकट भविष्य में ही वहाँ प्रारंभ हो जाएगी। ।।इति।।
- श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ से साभार
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास शिक्षा का उद्देश्य
सौंदर्य - वृद्धि एवं उत्तम स्वास्थ्य सभी को प्रिय है। उबटन व मालिश इस दिशा में महती भूमिका निभाते है । स्त्रियों की इस क्षेत्र में विशेष रुचि रही है। श्रमणपरंपरा के ग्रंथों में सुंगधित उबटन बनाने एवं उनका शरीर पर लेपन करने की विशेष विधि का विवरण मिलता है २० ।
ललितकलाओं में संगीत, गायन, वादन, चित्रकला को महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन शास्त्रों में इन विद्याओं में पारंगत स्त्रियों का उल्लेख किया गया है। तैत्तरीय संहिता में कन्याओं की संगीत - अभिरुचि का वर्णन मिलता है २९ । स्त्रियाँ पुरुषों की भाँति ही मंत्रों का सामगान किया करती थीं। उनमें मंत्रों के शुद्धीच्चारण तथा स्वरों के उचित आरोह एवं अवरोह की सामर्थ्य होती थी। भाव-भंगिमाओं और नृत्यकला में अन्योन्याश्रय संबंध है। मत्स्यपुराण में नृत्यकला में निष्णात नारियों का वर्णन मिलता है। नृत्यकला से सम्पन्न स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार की भावभंगिमाओं के आधार पर पुरुषों को लुभाती थीं । २२ चित्रकला में निष्णात नारियों में चित्रलेखा का अद्वितीय स्थान है । स्मृति के आधार पर रेखाचित्रों की सहायता से इसके द्वारा बनाए गए चित्रों को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है २३ । शिल्पकला एक विज्ञान है। श्रमण-परंपरा में नन्दुत्तरा नामक स्त्री को शिल्प कला एवं विविध प्रकार की वैज्ञानिक कलाओं की विज्ञ स्त्री माना गया है । २४
-
व्यावहारिक शिक्षा के लिए जहाँ व्यक्ति को अपने बुद्धि कौशल का प्रयोग करना पड़ता है, वहीं आध्यात्मिक शिक्षा के लिए त्याग, संयम, तप आदि का अभ्यास अनिवार्य है। इन सबके लिए ब्रह्मचर्य, सदाचरण, उत्तमशील, सच्चारित्र्य जैसे सम्यक आचरण का पालन करना होता है। इनके अभ्यास से योग और तप सिद्ध किए जा सकते हैं। इन्हें सिद्ध करने से ज्ञान की अभिवृद्धि होती है और इनकी सहायता से आध्यात्मिक उत्क्रान्ति या शिक्षा को प्राप्त किया जा सकता है। यह शिक्षा स्वाध्याय मात्र से ही संभव नहीं है। बल्कि इसके लिए विभिन्न तरह के कार्यों को आचरण में लाना पड़ता है। वैदिक परंपरा में ब्रह्मवादिनी स्त्रियों को आध्यात्मिक शिक्षा की धारिका माना जाता है। जबकि श्रमणपरंपरा में श्रमणसंघ में प्रविष्ट स्त्रियों को इस प्रकार की शिक्षा से युक्त माना गया है।
शिक्षा का उद्देश्य मानव-व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास में निहित माना जाता है। मनुष्य के बाह्य एवं अंतरंग सभी गुणों को पूर्ण विकसित किए बिना सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर पाना संभव नहीं है। वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में व्यक्तित्व की पूर्णावस्था को मोक्ष, निर्वाण अथवा कैवल्य कहा गया है। यह अध्यात्म की पराकाष्ठा है जो लौकिक साधनों को अपनाकर एवं उनका त्याग करके प्राप्त की जाती है। शिक्षा का भी यही परम उद्देश्य है।
For Private
सामान्यतया शिक्षा को लौकिक हितों को पूरा करने का एक माध्यम मान लिया जाता है। कुछ अर्थों में इसे स्वीकार किया जा सकता है। परंतु शिक्षा का एकमात्र यही उद्देश्य मान लिया जाए तो यह कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि इस लौकिक उत्थान के पीछे आध्यात्मिक उन्नति का भाव भी पनपता रहे तभी इसे समुचित कहा जाएगा। वस्तुतः शिक्षा का यही परम ध्येय है। उपनिषदों में इस बात पर बल दिया गया तथा यह स्पष्ट करने का प्रयत्न भी हुआ है कि शिक्षा प्राप्ति का उद्देश्य कर्म प्रधान होते हुए भी मुक्ति के लिए था । शिक्षापद्धति में कर्म की उपेक्षा न थी, बल्कि इसकी अपेक्षा वहीं तक थी जहाँ तक यह मोक्ष प्राप्ति में सहायक बन सके। कर्म जीवन को जगत् से आबद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि इससे विमुक्त करने के लिए था । यहाँ कर्म धर्म था कामना नहीं, कर्तव्य था स्वेच्छा नहीं, मुक्ति था बंधन नहीं ।
शिक्षा मनुष्य में अंतर्निहित शक्तियों को उद्घाटित करती है। यह मनुष्य के महनीय गुणों को उद्भासित एवं विकसित करती है। इसके कारण व्यक्ति लौकिक एवं पारलौकिक सुखों को प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो जाता है। बृहत्कथाकोश में कहा भी गया है कि निर्दोष तथा श्रमपूर्वक अभ्यस्त विद्या ऐहिक एवं पारलौकिक कार्यों को सफल बनाती है २६ । शिक्षा प्राप्त करने के बाद मनुष्य आत्म-अनात्म के भेद को समझने लगता है। वह आत्मस्वातंत्र्य के अर्थ से भलीभाँति परिचित हो जाता है। उसके जीवन के लिए वास्तव में क्या उपादेय है इसे समझने लगता है और उसकी क्रिया भी इसी के अनुरूप होती हैं। वह आत्मोन्मुख होकर परम शांति को प्राप्त करता है । आचार्य कुंदकुंद शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
[ १४८
Personal Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासआत्मा की ओर उन्मुख कराने वाली शिक्षा ही उपादेय है, क्योंकि ४. नास्ति विद्या समं-चक्षुः। महाभारत, १२/३३९/६, गीताप्रेस, यही व्यक्ति को आत्मा को स्वतंत्र कराने की शक्ति प्राप्त कराती गोरखपुर
५. ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं, समस्ततत्त्वार्थविलोचन दक्षम्। आत्मस्वातंत्र्य का यह भाव व्यक्ति में श्रेष्ठ गुणों का संचार शुभाषितरत्नसन्दोह पृष्ठ १९४, निर्णयसागर प्रेस, बंबई १९२६ करता है। वह अपनी शक्ति का सम्यक् उपयोग करता है। उसके
अप्पाणं ठावइस्सामि ति अज्झाइयव्वं भवइ। दसवेआलियसुतं, समक्ष उसका लक्ष्य स्पष्ट रहता है और वह उसे प्राप्त करने के
९/४/४, मूलसुत्ताणि (कन्हैयालालजी कमल), आगम लिए एकाग्रचित्त होकर अपनी संकल्प शक्ति को दृढ़ बनाता है।
अनुयोग प्रकाशन, वखतावरपुरा, सांडेराव (राजस्थान), वीर दशवैकालिक में शिक्षा के संबंध में कहा गया है २८- व्यक्ति
संवत् २५०३ को शिक्षा द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। स्वयं एवं दूसरों को धर्म में स्थापित करने की क्षमता प्राप्त
७. एन.एन. मजुमदार-हिस्ट्री ऑफ एडुकेशन इन इन्सिएन्ट इंडिया, होती है। अनेक प्रकार के श्रुतों का अध्ययन किया जाता है
पृ. ५८, मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं होने के कारण यह उद्धरण जिनके कारण व्यक्ति श्रुत-समाधि में रत हो जाता है। श्रत
'डा. निशान्द शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक 'जैन - वाङ्मय में समाधि में रत व्यक्ति विविध प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त
शिक्षा के तत्त्व' (पृ. १६), वैशाली शोध संस्थान, वैशाली
१९८८ के आधार पर दिया गया है। करता है। वह अपनी इस ज्ञान-क्षमता का प्रयोग हेय-उपादेय के निर्णय में करता है। इसमें सफल होकर सम्यक् प्रयास करके ८. अलब्रेट वेबर : द हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर, पृ. २०परम उपादेय को प्राप्त कर सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है। वह २२, चौखंभा संस्कृत सीरीज, वाराणसी-१९६१ सत-चित्-आनंद की अवस्था में रमण करने लगता है। उसके ९. स्वामी माधवानंद एवं रमेशचंद्र मजमदार-ग्रेट वीमेन ऑफ मन में सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:' का भाव हिलोरें ।
इंडिया, पृ. ९५, अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा १९५३ मारने लगता है। यही शिक्षा की ओजस्विता है और उद्देश्य की
१०. छात्रादया: शालायाम् ,पाणिनि, ६/२/४७ पराकाष्ठा भी।
. ११. ओघनियुक्ति, (द्रोणाचार्य), आ.वि.सू.जै. ग्रंथमाला, सूरत वैदिक एवं श्रमण वाङ्मय के इस अनुशीलन से हम इस । निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में १९५७, गाथा ६२२-६२३ नारी-शिक्षा की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था थी। स्त्रियाँ जीवन १२. एफ.इ. की- इंडियन एडुकेशन इन इन्सिएन्ट एण्ड लेटर के प्रत्येक क्षेत्र में भाग लेती थीं। वे सफल गहिणी होने के इंडिया,पृ. ७८-७९ , आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९४२ साथ-साथ कुशल एवं परमविदुषी अध्यापिका भी होती थीं। वे १३.बहदारण्यक उपनिषद. ४/५/१ ललितकलाओं व ज्ञान -विज्ञान के विविध विषयों में निष्णात
१४. की : इंडियन एडुकेशन इन एन्सिएन्ट एण्ड लेटर टाइम्स, प्रखर बुद्धि की धारिका होने के साथ-साथ आध्यात्मिक गुणों से
पृष्ठ ७४ एवं ७९ सम्पन्न विवेकवान व्यक्तित्व की स्वामिनी भी होती थीं।
१५. वही, पृ. ७५ संदर्भ
१६. दीघनिकाय- १/९६, नालंदा देवनागरी पालि ग्रन्थमाला, १. सर्वं खल्विदं ब्रह्म। छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/१, गीताप्रेस,
बिहार, १९५८ गोरखपुर
संयुत्तनिकाय ३/११, नालंदा देवनागरी पालि ग्रंथमाला, बिहार, २. शतपथ ब्राह्मण, ११/५,७, पूना संस्करण
१९५९ ३. महापुराण (भाग-२), ३८/४३, अनु.-पं. पन्नालाल जैन, १७.अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखाः प्रदेशे भूयांस उद्गीथविदो वसन्ति। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९७१
तेभ्योऽधिगन्तुं निगमान्तविद्यां वाल्मीकिपादिहपर्यटामि। and-stariudriduod-ordeoduddidrordrobinirdnird-१४९idirandirbideoromotorioriritorionitoid-buildren
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासउत्तररामचरित, 2/3 २४.परमत्थदीपिनी (थेरगाथा की अट्टकथा) पाली टेक्स्ट १८.संयुत्तनिकाय 3/111, नालंदा देवनागरी पालि ग्रन्थमाला, सोसायटी, लंदन 1940 बिहार, 1959 २५.तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। 19. ऋग्वेद संहिता 1/191/14,8581/5-6, 3/55/12, संपा.- २६.बृहत्कथाकोश 19/82 संपा.- डा.ए.एन. उपाध्ये, भारतीय जयदेव शर्मा, आर्य साहित्य मंडल लिमिटेड, अजमेर विद्या भवन, बंबई, संवत् 1999 20. आचारांग सूत्र, 2/2/3 सू. 317-318, श्री सिद्धचक्र साहित्य २७.जो वेददि वेदिज्जदि समए विणस्सहे उभय तं जाणगो इ .. प्रचारक समिति, बंबई 1935 .. णाणी उभयपि ण कंखइ कयापि। समयसार 216, अनु:-पं. सूयगडं, 1/4/2/7, संपा.-डा. पी.एल. वैद्य, पना 1935 परमेष्ठी दास न्यायतीर्थ, जैन ग्रन्थमाला, मारोड मारवाड: 1953 नायाधम्मकहाओ, 1/1/13, संपा डा. पी.एल. वैद्य, पूना 28. 1. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। 1940 महावग्ग, पृ. 287, नालंदा देवनागरी पालि-ग्रंथमाला, विहार, 2. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। 1956 3. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयत्वं भवइ। २१.तैत्तरीय संहिता 6/1/6/5 ४.ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। दसवेआलियं २२.मत्स्यपुराण 82/29, 131/19, संपा.- श्रीराम शर्मा, बरेली २३.विष्णुपुराण 32/22, संपा. श्री राम शर्मा. बरेली मूलसुत्ताणि--मुनि कन्हैयालाल 'कमल' 9/4