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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास शिक्षा का उद्देश्य
सौंदर्य - वृद्धि एवं उत्तम स्वास्थ्य सभी को प्रिय है। उबटन व मालिश इस दिशा में महती भूमिका निभाते है । स्त्रियों की इस क्षेत्र में विशेष रुचि रही है। श्रमणपरंपरा के ग्रंथों में सुंगधित उबटन बनाने एवं उनका शरीर पर लेपन करने की विशेष विधि का विवरण मिलता है २० ।
ललितकलाओं में संगीत, गायन, वादन, चित्रकला को महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन शास्त्रों में इन विद्याओं में पारंगत स्त्रियों का उल्लेख किया गया है। तैत्तरीय संहिता में कन्याओं की संगीत - अभिरुचि का वर्णन मिलता है २९ । स्त्रियाँ पुरुषों की भाँति ही मंत्रों का सामगान किया करती थीं। उनमें मंत्रों के शुद्धीच्चारण तथा स्वरों के उचित आरोह एवं अवरोह की सामर्थ्य होती थी। भाव-भंगिमाओं और नृत्यकला में अन्योन्याश्रय संबंध है। मत्स्यपुराण में नृत्यकला में निष्णात नारियों का वर्णन मिलता है। नृत्यकला से सम्पन्न स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार की भावभंगिमाओं के आधार पर पुरुषों को लुभाती थीं । २२ चित्रकला में निष्णात नारियों में चित्रलेखा का अद्वितीय स्थान है । स्मृति के आधार पर रेखाचित्रों की सहायता से इसके द्वारा बनाए गए चित्रों को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है २३ । शिल्पकला एक विज्ञान है। श्रमण-परंपरा में नन्दुत्तरा नामक स्त्री को शिल्प कला एवं विविध प्रकार की वैज्ञानिक कलाओं की विज्ञ स्त्री माना गया है । २४
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व्यावहारिक शिक्षा के लिए जहाँ व्यक्ति को अपने बुद्धि कौशल का प्रयोग करना पड़ता है, वहीं आध्यात्मिक शिक्षा के लिए त्याग, संयम, तप आदि का अभ्यास अनिवार्य है। इन सबके लिए ब्रह्मचर्य, सदाचरण, उत्तमशील, सच्चारित्र्य जैसे सम्यक आचरण का पालन करना होता है। इनके अभ्यास से योग और तप सिद्ध किए जा सकते हैं। इन्हें सिद्ध करने से ज्ञान की अभिवृद्धि होती है और इनकी सहायता से आध्यात्मिक उत्क्रान्ति या शिक्षा को प्राप्त किया जा सकता है। यह शिक्षा स्वाध्याय मात्र से ही संभव नहीं है। बल्कि इसके लिए विभिन्न तरह के कार्यों को आचरण में लाना पड़ता है। वैदिक परंपरा में ब्रह्मवादिनी स्त्रियों को आध्यात्मिक शिक्षा की धारिका माना जाता है। जबकि श्रमणपरंपरा में श्रमणसंघ में प्रविष्ट स्त्रियों को इस प्रकार की शिक्षा से युक्त माना गया है।
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शिक्षा का उद्देश्य मानव-व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास में निहित माना जाता है। मनुष्य के बाह्य एवं अंतरंग सभी गुणों को पूर्ण विकसित किए बिना सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर पाना संभव नहीं है। वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में व्यक्तित्व की पूर्णावस्था को मोक्ष, निर्वाण अथवा कैवल्य कहा गया है। यह अध्यात्म की पराकाष्ठा है जो लौकिक साधनों को अपनाकर एवं उनका त्याग करके प्राप्त की जाती है। शिक्षा का भी यही परम उद्देश्य है।
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सामान्यतया शिक्षा को लौकिक हितों को पूरा करने का एक माध्यम मान लिया जाता है। कुछ अर्थों में इसे स्वीकार किया जा सकता है। परंतु शिक्षा का एकमात्र यही उद्देश्य मान लिया जाए तो यह कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि इस लौकिक उत्थान के पीछे आध्यात्मिक उन्नति का भाव भी पनपता रहे तभी इसे समुचित कहा जाएगा। वस्तुतः शिक्षा का यही परम ध्येय है। उपनिषदों में इस बात पर बल दिया गया तथा यह स्पष्ट करने का प्रयत्न भी हुआ है कि शिक्षा प्राप्ति का उद्देश्य कर्म प्रधान होते हुए भी मुक्ति के लिए था । शिक्षापद्धति में कर्म की उपेक्षा न थी, बल्कि इसकी अपेक्षा वहीं तक थी जहाँ तक यह मोक्ष प्राप्ति में सहायक बन सके। कर्म जीवन को जगत् से आबद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि इससे विमुक्त करने के लिए था । यहाँ कर्म धर्म था कामना नहीं, कर्तव्य था स्वेच्छा नहीं, मुक्ति था बंधन नहीं ।
शिक्षा मनुष्य में अंतर्निहित शक्तियों को उद्घाटित करती है। यह मनुष्य के महनीय गुणों को उद्भासित एवं विकसित करती है। इसके कारण व्यक्ति लौकिक एवं पारलौकिक सुखों को प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो जाता है। बृहत्कथाकोश में कहा भी गया है कि निर्दोष तथा श्रमपूर्वक अभ्यस्त विद्या ऐहिक एवं पारलौकिक कार्यों को सफल बनाती है २६ । शिक्षा प्राप्त करने के बाद मनुष्य आत्म-अनात्म के भेद को समझने लगता है। वह आत्मस्वातंत्र्य के अर्थ से भलीभाँति परिचित हो जाता है। उसके जीवन के लिए वास्तव में क्या उपादेय है इसे समझने लगता है और उसकी क्रिया भी इसी के अनुरूप होती हैं। वह आत्मोन्मुख होकर परम शांति को प्राप्त करता है । आचार्य कुंदकुंद शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
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