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_- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. जमा लिया जिससे कलान्तर में इस प्रान्त का नाम ही दियावट- स्वर्गवास के समय वि.सं. १९६३ में राजगढ़ (मध्य भारत) पट्टी हो गया । बाद में इस पर जोधपुर-नरेश का अधिकार हो में गुरुदेव ने कोरटा, जालोर, तालनपुर और मोहनखेड़ा के साथ जाने पर विक्रम संवत् १८०३ में जोधपुराधपि रामसिंह ने दय्या इस तीर्थ की भी व्यवस्था-उद्धारादि सम्पन्न करवाने का लुम्बाजी से इसे छीन कर समीपस्थ आणाग्राम के ठाकुर मालमसिंह वर्तमानाचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी को आदेश दिया था। आपने भी को दिया । आज भी उक्त ठाकुर के वंशज भगवानसिंहजी यहाँ गुर्वाज्ञा से उक्त समस्त तीर्थों की व्यवस्था तथा उद्धारादि के के जागीदार हैं।
लिए स्थान-स्थान के जैन श्रीसंघ को उपदेश दे-देकर सब विक्रम की ७ वीं शताब्दी में इस प्रान्त में बेसाला नाम का
तीर्थों का उद्धार कार्य करवाया। श्री अभिधानराजेन्द्रकोष के एक अच्छा कस्बा आबाद था। जिसमें जैन श्वेताम्बरों के सैंकड़ों
संपादन और उसकी अर्थव्यवस्था में में लग जाने से थोड़े विलंब घर थे। वहाँ एक भव्य मनोहर विशाल सौध-शिखरी जिनालय स इस ताथ क तृतीयाद्धार का
से इस तीर्थ के तृतीयोद्धार को आपने वि.सं. १९८८ में प्रारंभ था। इसके प्रतिष्ठाकारक आचार्य का नाम क्या था और वे किस
करवाया जो कि वि.सं. २००७ में पूर्ण हुआ। इसकी प्रतिष्ठा का गच्छ के थे यह अज्ञात है। मात्र जिनालय के एक स्तंभ पर सं. महामहोत्सव वि.सं. २०१० ज्येष्ठ सु. १ सोमवार को ८१३ श्री महावीर इतना लिखा है।
दशदिनावधिक उत्सव के साथ सम्पन्न हुआ था। इस प्रतिष्टोत्सव
में २५ सहस्र के लगभग जनता उपस्थित हुई थी। इस महामहोत्सव बेसाला पर मेमन डाकुओं के नियमित हमले होते रहने से
को इन पंक्तियों के लेखक ने भी देखा है। यहाँ यात्रियों के जनता उसे छोड़ कर अन्यत्र जा बसी, डाकुओं ने मन्दिर पर भी
ठहरने के लिए मरुधरदेशीय श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री आक्रमण करके उसे तोड़ डाला, किसी प्रकार प्रतिमा को बचा
संघ की ओर से मंदिर के तीनों ओर विशालकाय धर्मशाला बनी लिया गया। जनश्रुत्यनुसार कोमता के निवासी संघवी पालजी
हुई है। मंदिर में मूलनायकजी के दोनों ओर की सब प्रतिमाजी प्रतिमाजी को एक शकट में विराजमान कर कोमता ले जा रहे थे
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के द्वारा प्रतिष्ठित है। मूल कि शकट भांडवा में जहाँ वर्तमान में चैत्य है, वहाँ आकर रुक
मंदिर के चारों कोनों में जो लघु मंदिर हैं, उनमें विराजित प्रतिमाएँ गया और लाख-लाख प्रयत्न करने पर भी जब गाड़ी नहीं चलीं
वि.सं. १९९८ में बागरा में श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज तो सब निराश होगये । रात्रि के समय अर्ध-जागृतावस्था में
के करकमलों से प्रतिष्ठित हैं, जो यहाँ २०१० के प्रतिष्ठोत्सव के पालजी को स्वप्र आया कि प्रतिमा को इसी स्थान पर चैत्य बनवा कर उस में विराजमान कर दो । स्वप्रानुसार पालजी
अवसर पर विराजमान की गई हैं। संघवी ने यह मन्दिर विक्रम संवत् १२३३ माघ सुदि ५ गुरुवार
प्रत्येक जैन को एक बार अवश्य रेगिस्तान के इस प्रकट को बनवा कर महामहोत्सव सहित उक्त प्रभावशाली प्रतिमा को प्रभावी प्राचीन तीर्थ का दर्शन-पूजन करना चाहिए। विराजमान करा दिया। आज भी यहाँ पालजी संघवी के वंशज
(३) श्रीस्वर्णगिरितीर्थ-जालोर ही प्रति वर्ष मन्दिर पर ध्वजा चढाते हैं। इसका प्रथम जीर्णोद्धार वि.सं. १३५९ में और द्वितीय जीर्णोद्धार विक्रम संवत् १६५४ में
यह प्राचीन तीर्थ जोधपुर से राणीवाड़ा जाने वाली रेलवे दियावट पट्टी के जैन श्वेताम्बर श्री संघने करवाया था।
लाइन के जालोर स्टेशन के समीप स्वर्णगिरि नाम से प्रख्यात
पर्वत पर स्थित है। नीचे नगर में प्राचीनार्वाचीन १३ मंदिर हैं। विक्रमीय २० वीं शताब्दी के महान् ज्योतिधर
ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि जालोर नवमी शताब्दी में अति परमक्रियोद्धारक प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज जब
समृद्ध था। वर्तमान में पर्वत पर किले में ३ प्राचीन और दो नूतन आहोर से संवत् १९५५ में इधर पधारे तो समीपवर्ती ग्रामों के
भव्य जिनमंदिर है। प्राचीन चैत्य यक्षवसति (श्री महावीर मंदिर), निवासी श्रीसंघने उक्त प्रतिमा को यहाँ से नहीं उठाने और इसी
अष्टापदावतार (चौमुख) और कुमारविहार (पार्श्वनाथ चैत्य) हैं। चैत्य का विधिपूर्वक पुनरोद्धारकार्य सम्पन्न करने को कहा। गुरुदेवने सारी पट्टी में भ्रमण कर जीर्णोद्धार के लिये उपदेश भी दिये।
यक्षवसति जिनालय सबसे प्राचीन है। यह भव्य मंदिर दर्शकों को तारंगा के विशालकाय मंदिर की याद दिलाता है।
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