Book Title: Man Shakti Swarup aur Sadhna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 5
________________ मन -- शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण : 101 सूत्रकृतांग में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख मिलता है -- कई जीव ऐसे भी हैं, जिनमें जरा-सी तर्कशक्ति, प्रज्ञाशक्ति या मन या वाणी की शक्ति नहीं होती है। वे मूढ़ जीव भी सबके प्रति समान दोषी है और उसका कारण यह है कि सब योनियों के जीव एक जन्म में संज्ञा (विवेक) वाले होकर अपने किये हुए कर्मों के कारण दूसरे जन्म में असंज्ञी (विवेक शून्य ) बनकर जन्म लेते हैं। अतएव विवेकवान् होना या न होना अपने ही किये हुए कर्मों का फल होता है इससे विवेकाभाव की दशा में जो कुछ पाप-कर्म होते हैं उनकी जवाबदारी भी उनकी ही है। यद्यपि जैन तत्वज्ञान में जीवों के अव्यवहार-राशि की जो कल्पना की गई है, उस वर्ग के जीवों के नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या सूत्रकृतांग के इस आधार पर नहीं हो सकती। क्योंकि अव्यवहार-राशि के जीवों को तो विवेक कभी प्रगटित ही नहीं हुआ वे तो केवल इस आधार पर ही उत्तरदायी माने जा सकते हैं कि उनमें जो विवेकक्षमता प्रसुप्त है वे उसका प्रगटन नहीं कर रहे हैं। एक प्रश्न यह भी है कि यदि नैतिक प्रगति के लिए "सविवेक मन" आवश्यक है तो फिर जैन विचारणा के अनुसार वे सभी प्राणी जिनमें ऐसे "मन" का अभाव है, नैतिक प्रगति के पथ पर कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे। जैन विचारणा के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर यह होगा कि "विवेक" के अभाव में भी कर्म का बन्ध और भोग तो चलता है, लेकिन फिर भी जब विचारक-मन का अभाव होता है तो कर्म वासना-संकल्प से युक्त होते हुए भी वैचारिक संकल्प से युक्त नहीं होते है और कर्मों के वैचारिक संकल्प से युक्त नहीं होने के कारण बन्धन में तीव्रता भी नहीं होती है। इस प्रकार नवीन कर्मों का बन्ध होते हुए भी तीव्र बन्ध नहीं होता है और पुराने कर्मों का भोग चलता रहता है। अतः नदी-पाषाण न्याय के अनुसार संयोग से कभी न कभी वह अवसर हो जाता है, जब प्राणी विवेक को प्राप्त कर लेता है और नैतिक विकास की ओर अग्रसर हो सकता है। मन का स्वरूप इस प्रकार हम देखते है कि मन आचारदर्शन का केन्द्र बिन्दु है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों की परम्परायें मन को नैतिक जीवन के सन्दर्भ में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। अतः यह स्वाभाविक है कि मन का स्वस्प क्या है और वह नैतिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है इस तथ्य पर भी विचार करें। __ मन के स्वरूप के विश्लेषण की प्रमुख समस्या यह है कि क्या मन भौतिक तत्त्व है अथवा आध्यात्मिक तत्त्व है ? बौद्ध विचारणा मन को चेतन तत्त्व मानती है जबकि सांख्यदर्शन और योगवासिष्ठ में उसे जड़ माना गया है।14 गीता सांख्य विचारणा के अनुरूप मन को जड़ प्रकृति से ही उत्पन्न और त्रिगुणात्मक मानती है। जैन विचारणा में मन के भौतिक पक्ष को "द्रव्यमन" और चेतन पक्ष को "भावमन" कहा गया है।16 विशेषावश्यकभाष्य में बताया गया है कि द्रव्यमन मनोवर्गणा नामक परमाणुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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